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आगमद्रव्यावश्यक]
१७६, जैन-लक्षणावली [भागमभावचतुर्विशतिस्तव अणुवजुत्तो पागमदव्वप्पाब । (धव. पु. ५, पृ. अध्ययन का ज्ञाता होकर जो
अध्ययन का ज्ञाता होकर जो वर्तमान में तद्विषयक २४२)।
उपयोग से भी सहित हो, उसे आगमभाव-अध्ययन जो जीव अल्पबहुत्वप्राभृत का ज्ञाता होकर वर्तमान कहते हैं। में उसके उपयोग से रहित हो उसे आगमद्रव्याल्प- प्रागमभावकर्म-कम्मागमपरिजाणगजीवो कम्माबहुत्व कहते हैं।
गमम्हि उवजुत्तो। भावागमकम्मो त्ति य तस्स य प्रागमद्रव्यावश्यक-जस्सं णं प्रावस्सए त्ति पदं सण्णा हबे णियमा । (गो. क. ६५) । सिक्खितं ठितं जितं मितं परिजितं नामसमं घोस- कर्मविषयक प्रागम को जानते हुए उसमें उपयुक्त समं अहीणक्खरं अणच्चक्खरं अव्वाइद्धक्खरं अक्ख- जीव को प्रागमभावकर्म कहते हैं। लिग्रं अमिलिअं अवच्चामेलिनं पडिपुण्णं पडिपुण्ण- प्रागमभावकर्मप्रकृतिप्राभूत- कम्मपयडिपाहुडघोसं कंठोट्टविप्पमुक्कं गुरुवायणोवगयं, से णं तत्थ जाणो उवजुत्तो पागमभावकम्मपयडिपाहुडं । वायणाए पुच्छणाए परिअट्टणाए धम्मकहाए, नो (धव. पु. ६, पृ. १३०)। अणुप्पेहाए । कम्हा ? अणुवयोगो दव्वमिति कट्ट ।।
। कम्हा ! अणुवागा दवामात कट्ट। कर्मप्रकृतिप्राभत के ज्ञायक और उसमें उपयुक्त जीव (अनुयो. सू. १३)।
को पागमभावकर्मप्रकृतिप्राभूत कहते हैं। जिसे प्रावश्यक यह पद शिक्षित, स्थित, जित व
प्रागमभावकाल - कालपाहुडजाणो उवजुत्तो मित आदि के क्रम से गुरुवाचनोपगत तक है और
जीवो पागमभावकालो। (धव. पु. ४, पृ. ३१६) । जो वाचना, प्रच्छना, परिवर्तना एवं धर्मकथा में
कालविषयक पागम के ज्ञायक और उसमें उपयुक्त व्याप्त है; पर अनुप्रेक्षा (चिन्तन) में व्यापृत नहीं
जीव को प्रागमभावकाल कहते हैं। है, उसे आगमद्रव्यावश्यक कहते हैं। प्रागमद्रव्योत्तर - द्रव्योत्तरमागमतो ज्ञाताऽनूप
प्रागमभावकृतिजा सा भावकदी णाम सा युक्तः । (उत्तरा. नि. शा. वृ. १-१, पृ. ३)।
उवजुत्तो पाहुडजाणगो॥ एत्थ पाहुडसद्दो कदीए 'उत्तर' पद के अर्थ के ज्ञाता, किन्तु वर्तमान में अनु
विसेसिदब्बो, पाहडसामण्णण अहियाराभावादो ।
तदो कदिपाहडजाणग्रो उवजुत्तो भावकदि त्ति सिद्धं । पयुक्त जीव को पागमद्रव्योत्तर कहते हैं। प्रागमद्रव्योपक्रम -- आगमत उपक्रमशब्दार्थस्य
(षट्खं. ४, १, ७४---पु. ६, पृ. ४५१) ।
जो जीव कृतित्राभूत का ज्ञाता होकर तद्विषयक ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, अनुपयोगो द्रव्यमिति बचनात् । (व्यव. भा. मलय. वृ. १-१, पृ. १; जम्बू
उपयोग से भी युक्त है उसे आगमभावकृति द्वी. शा. वृ. पृ. ५)।
कहते हैं। जो उपक्रम पद का ज्ञाता होकर वर्तमान में तद्विष
आगमभावक्षेत्र-प्रागमदो भावखेत्तं खेत्तपाहुड. यक उपयोग से रहित हो उसे प्रागमद्रव्योपक्रम
जाणगो उवजुत्तो । (धव. पु. ४, पृ. ७ व पु. ११, कहते हैं।
पृ. २)। पागमभाव-१. प्रागम: प्राभृतज्ञायी पुमांस्तत्रो
क्षेत्रविषयक प्रागम का ज्ञाता होकर जो जीव उसमें पयुक्तधीः । (त. श्लो. १, ५, ६७) । २. जीवादि- उपयुक्त है उसे पागमभावक्षेत्र कहते हैं। प्राभूतविषयोपयोगाविष्ट आत्मा अागमभावः । आगमभावग्रन्थकृति-गंथकइपाहुडजाणग्रो उव(न्यायकु. ७-७६, पृ. ८०७) । ३. तत्र प्रागम- जुत्तो पागमभावगंथकई णाम । (धव. पु. ६, पृ. भावो जीवादिप्राभूतज्ञायी तदुपयुक्तः श्रुतज्ञानी । (लघीय. अभय. वृ. ७-४, पृ.६८)।
ग्रन्थकृतिविषयक प्राभत का ज्ञाता होकर जो जीव २ जीवादिप्राभूतविषयक उपयोग से युक्त जीव उसमें उपयुक्त है उसे प्रागमभावग्रन्थकृति कहते हैं । को आगमभाव निक्षेप कहते हैं।
आगमभावचतुर्विंशतिस्तव-चतुर्विंशतिस्तवव्याप्रागमभाव-अध्ययन-से कि आगमयो भावज्झ. वर्णनप्राभृतज्ञायी उपयुक्त प्रागमभावचतुर्विंशतियणे ? जाणए उवउत्ते, से तं प्रागमनो भावज्झयणे। स्तवः । (मूला. वृ. ७-४१)। (अनुयो. सू. १५०, पृ. २५१ ।
चविंशतिस्तव के वर्णन करने वाले प्राभूत के
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