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अजघन्य द्रब्यवेदना २०, जैन-लक्षणावली
[अजीवकरण धान्य को अज कहते हैं।
से बन्धुवर्ग-कुटुम्बी जन-उनकी क्रीड़ानों में अजघन्य द्रव्यवेदना (ज्ञानावरणीय की)-तव्व- भी प्रफुल्लित मुख-कमल से संयुक्त होता हुआ दिरित्तमजहण्णा । (षट्खं. ४, २-४, ७६ पु. १०, चूंकि अजेय शक्ति से सम्पन्न हया था, अतएव पृ. २६६); खीणकषायचरिमसमए एगणिसेगट्ठि- उसने उनके . 'अजित' इस सार्थक नाम को दीए एगसमयकालाए चेद्विदाए णाणावरणीयस्स प्रसिद्ध किया था। २ परीषह व उपसर्ग आदि जहण्णदव्वं होदि । एदस्स जहण्णदव्वस्सुवरि प्रोक- के द्वारा नहीं जीते जाने के कारण द्वितीय ड्डुक्कड्डणमस्सिदूण परमाणुत्तरं वढिदे जहण्ण- जिनेन्द्र को प्रजित कहा गया है तथा उनके मजहण्णद्वाणं होदि । (धव. पु. १०, पृ. ३००)। गर्भवास के समय तक्रीडा में पिता के द्वारा क्षीणकषाय गुणस्थान के अन्तिम समय में एक माता को न जीत सकने के कारण भी उनके इस समयवाली एक निषेकस्थिति के अवस्थित रह जाने प्रभावशाली पुत्र को-दूसरे तीर्थकर को-अजित पर ज्ञानावरणीय कर्म की द्रव्य की अपेक्षा जघन्य कहा गया है। वेदना होती है। इस जघन्य द्रव्य के ऊपर अजिनसिद्ध-अजिनसिद्धा य पुंडरिया पमुहा । अपकर्षण और उत्कर्षण के वश एक परमाणु की (नवतत्व. ५६, प. १७७)। वद्धि के होने पर ज्ञानावरणीय के प्रकृत अजघन्य पंडरीक आदि अजिनसिद्ध हुए हैं। द्रव्यका प्रथम विकल्प होता है। तत्पश्चात् दो पर- अजीव-१. तद्विपर्ययलक्षणो (अचेतनालक्षणो) माणुओं की वृद्धि होने पर उक्त प्रजघन्य द्रव्य का । ऽजीवः। (स. सि. १-४) । २. तद्विपर्ययोऽजीद्वितीय विकल्प होता है । यह क्रम एक परमाणुसे हीन वः ॥८॥ यस्य जीवनमुक्तलक्षणं नास्त्यसौ तद्विपर्यउसके उत्कृष्ट द्रव्य तक समझना चाहिये। अपनी याद अजीव इत्युच्यते । (त. वा. १-४)। ३. तद्विअपनी कुछ विशेषताओं के साथ दर्शनावरणादि परीतः सुख-दुःख-ज्ञानोपयोगलक्षणरहितः) त्वजीवः । अन्य कर्मों की भी अजघन्य वेदना का यही क्रम है। (त. भा. हरि. व. १-४) । ४. XXX यश्चैतद्(सूत्र ७८, १०६, ११०, १२२)।
विपरीतवान् (चैतन्यलक्षणरहितः) । अजीवः स अजंगम प्रतिमा-सुवर्ण-मरकतमणिघटिता, स्फ- समाख्यातः Xxx॥ (षड्द. स. ४-९); टिकमणिघटिता, इन्द्रनीलमणिनिर्मिता, पद्मरागमणि- ५. चैतन्याभावलक्षणोऽजीवः । (पंचा. का. अमृत. व. रचिता, विद्रुमकल्पिता, चन्दनकाष्ठानुष्ठिता वा १०८) । ६. तद्विलक्षणः पुद्गलादिपंचभेदः पुनरप्यअजंगमा प्रतिमा। (बोधप्रा. टी. १०)।
जीवः। (पंचा. का. जय. व. १०८)। ७. उपयोगसुवर्ण व मरकत प्रादि मणिविशेषों से निर्मित अचे- लक्षणरहितोऽजीवः (रत्नक. टी. २-५)। ८. स्यातन प्रतिमाओं को अजंगम प्रतिमा कहते हैं। दजीवोऽप्यचेतनः । (पञ्चाध्या. २-३)। ६. तद्विलक्षणः प्रजातकल्प---xxxअगीतो खलु भवे अजातो (चेतनालक्षणरहितः) पुद्गल-धर्माधर्मा-काश-कालस्वतु । (व्यव. सू. भा.गा. १६); अगीतोऽगीतार्थः खलु रूपपञ्चविधोऽजीवः । (प्रारा.सा.टी.४)। १०. यस्तु भवेदजातोऽजातकल्पः। (व्यव. सू. भा. वृ. गा. ज्ञान-दर्शनादिलक्षणो नास्ति, स पुद्गल-धर्माधर्मा
काश-काललक्षणोऽजीवः (त. वृ. श्रुत. १-४)। ११. अगीतार्थ-सूत्र, अर्थ और उभयसे रहित-कल्प अजीवः पुनस्तद्विपरीत-(चेतनाविपरीत-) लक्षणः (प्राचार) अजातकल्प कहलाता है।
(त. सुखबो. वृ. १-४)। १२. स्यादजीवस्तदन्यकः । अजित-१. यस्य प्रभावात् त्रिदिवच्युतस्य क्रीडा- (विवेकवि. ८-२५१) । स्वपि क्षीवमुखारविन्दः । अजेयशक्तिर्भुवि बन्धुवर्ग- जिसमें चेतना न पायी जाय उसे अजीव कहते हैं। श्चकार नामाजित इत्यबन्ध्यम् ॥ (बृ. स्वयं. स्तोत्र अजीवकरण-१. जीवमजीवे भावे अजीवकरणं ६) । २. परीषहादिभिर्न जित इति अजितः । तथा तु तत्थ वन्नाई। (प्राव. नि. गा. १०१६) । २. जं गर्भस्थे भगवति जननी द्यूते राज्ञा न जिता इत्यजितः। जं निज्जीवाणं कीरइ जीवप्पोगो तं तं । वन्नाइ (योगशा. ३-१४४)।
...... . रूवकम्माइ वावि अज्जीवकरणं तु ॥ (पाव. भा. १ स्वर्ग से अवतीर्ण जिस द्वितीय तीर्थकर के प्रभाव गा. १५७, पृ. ४५८) ।
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