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ग्रन्थ की रचना वीर निर्वाण से ६९३ वर्ष के
वर्ष में हुई' । ( इससे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रस्तुत पश्चात् किसी समय हुई है ) ।
आगे छठी वाचना में भगवान् पार्श्वनाथ भोर नेमिनाथ के पाँच कल्याणकों का निरूपण किया
गया है ।
जैन - लक्षणावली
सातवीं वाचना में प्रथमतः तीर्थकरों के मध्यगत अन्तरों को बतलाते हुए सिद्धान्त के पुस्तकारूढ़ होने के काल का भी दिर्देश किया गया है । तत्पश्चात् श्रादिनाथ जिनेन्द्र के पाँच कल्याणकों की प्ररूपणा की गई 1
आठवीं वाचना में स्थविरावली और अन्तिम (नौंवीं) वाचना में साधु-सामाचारी की प्ररूपणा गई है । ग्रन्थप्रमाण इसका १२१५ है ।
इसके ऊपर सकलचन्द्र गणि के शिष्य समयसुन्दर गणि के द्वारा कल्पलता नाम की टीका लिखी गई है । उसका रचनाकाल विक्रम सं. १६६६ के श्रास पास है । इस टीका के साथ प्रस्तुत ग्रन्थ जिनदत्त सूरि ज्ञानभण्डार बम्बई से प्रकाशित हुआ है । दूसरी सुबोधिका नाम की टीका कीर्तिविजय गणि के शिष्य विनयविजय उपाध्याय के द्वारा वि. सं. १६६६ में लिखी गई है। इस टीका के साथ वह आत्मानन्द जैन सभा भावनगर से प्रकाशित हुआ है । इसकी टीका का उपयोग अकस्माद्भय, श्राकर, श्राचेलक्य, श्रादानभय, श्रनप्राण और इहलोकभय श्रादि शब्दों में हुआ है ।
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४५. बृहत्कल्पसूत्र - यह छेदसूत्रों में से एक है । इसमें साधु-साध्वियों को किस प्रकार की प्रवृत्ति करनी चाहिए और किस प्रकार की नहीं करनी चाहिए, इसका विवेचन किया गया है । इसके ऊपर आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) विरचित निर्य क्ति और प्राचार्य संघदास (विक्रम की ७वीं शती) गणि विरचित लघु भाष्य भी है । वृहद् भाष्य भी इसके ऊपर रचा गया है, पर उसका अधिकांश भाग अनुपलब्ध है । निर्युक्तिगाथायें भाष्यगाथाओं से मिश्रित हैं । यह पीठिका के अतिरिक्त छह उद्देशों में विभक्त है । समस्त गाथासंख्या ६४९० है । इस भाष्य में अनेक महत्त्वपूर्ण विषय चर्चित हैं । इसके ऊपर गा. ६०६ तक प्रा. मलयगिरि के द्वारा टीका रची जा सकी है, तत्पश्चात् शेष टीका की पूर्ति प्राचार्य क्षेमकीर्ति द्वारा की गई है । आचार्य क्षेमकीर्ति विजयचन्द्र सूरि के शिष्य थे । उनके द्वारा यह टीका ज्येष्ठ शुक्ला दशमी वि. सं. १३३२ को समाप्त की गई है। यह पूर्वोक्त नियुक्ति और भाष्य के साथ श्रात्मानन्द सभा भावनगर द्वारा छह भागों में प्रकाशित की गई है । इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है—
नि. या भा. प्रच्छिन्न कलिका, प्रतिपरिणामक, अनन्तजीव, अनुयोग, श्रभिवद्धित मास, अर्थकल्पिक, उत्क्षिप्तचरक, उन्मार्गदेशक, श्रोज श्राहार, श्रीपभ्योपलब्धि और औपशमिक सम्यक्त्व आदि । टीका -- प्रक्ष, श्रत्यन्तानुपलब्धि, अनूपक्षेत्र, अपचयभात्रमन्द, ओज आहार और
पभ्योपलब्धि
आदि ।
४६ व्यवहारसूत्र — इसकी गणना भी छेदसूत्रों में की जाती है । वृहत्कल्पसूत्र के समान इसमें भी साधु-साध्वियों के आचार-विचार का विवेचन है । इसके ऊपर भी श्राचार्य भद्रबाहु विरचित निर्युक्ति
। भाष्य भी है, पर वह किसके द्वारा रचा गया है, यह निश्चित नहीं है। इतना निश्चित प्रतीत होता है। कि इसके रचयिता विशेषणवती के कर्ता जिनभद्र गणि के पूर्ववर्ती । इसके ऊपर आ. मलयगिरि द्वारा विरचित भाष्यानुसारिणी टीका भी है। पूरा ग्रन्थ पीठिका के अतिरिक्त दस उद्देशों में विभक्त है । इसमें साधु के लिए क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, इसका उत्सर्ग और अपवाद के १. समणस्स भगवप्रो महावीरस्स जाव सव्वदुक्खपहीणस्स नववाससयाई विश्व कंताई दसमस्स य वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छइ, वायणंतरे पुण श्रयं तेणउए संवच्छरे काले गच्छइ इइ दिसइ | सूत्र १४८, पृ. १६००
२. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास भा. ३, पू. १३७.
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