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________________ १६ जैन - लक्षणावली परिचय देते हुए इतनी मात्र सूचना की है— चन्द्रनन्दी महाकर्मप्रकृत्याचार्य के प्रशिष्य श्रारातीयसूरिचूलामणि नागनन्दी गणी के चरण-कमल की सेवा से प्राप्त बुद्धि के लेश से सहित और बलदेव सूरि के शिष्य प्रख्यात अपराजित सूरि के द्वारा नागनन्दी गणी की प्रेरणा से रची गई विजयोदया नामकी आराधना टीका समाप्त हुई । उक्त टीकायों के साथ प्रस्तुत ग्रन्थ बलात्कारगण जैन पब्लिकेशन सोसायटी कारंजा से प्रकाशित हुआ है । इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है मूल — प्रकृतसमुद्घात, अणुव्रत, अव्यक्त दोष, श्राचारवान् श्राज्ञाविचय, प्रादाननिक्षेपणसमिति और श्रार्तध्यान आदि । विजयो. - भिगृहीत मिथ्यात्व श्रव्यक्तमरण, श्राकिञ्चन्य, आचार्य, श्राज्ञाविचय, आम्नाय और उन्मिश्रदोष आदि । मूला - प्रतिचार, अनभिगृहीतमिथ्यात्व, प्राचार्य, उपगूहन और उभिन्न ग्रादि । १५. तत्त्वार्थसूत्र – यह एक ऐसा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है जो दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में प्रतिष्ठित है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में यह तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के नाम से प्रसिद्ध है । इसके रचयिता प्राचार्य उमास्वाति हैं । रचनाकाल इसका २ - ३री शताब्दी है। जैन परम्परा में सम्भवतः यह संस्कृत में प्रथम ही रचना है । यह दस अध्यायों में विभक्त है । प्रथम श्रध्याय भूमिका रूप । दूसरे, तीसरे व चौथे इन तीन अध्यायों में जीवतत्त्व का, पाँचवें में जीवतत्व का छठे व सातवें इन दो अध्यायों में आसवका, प्राठों में बन्ध का, नौवें में संवर और निर्जरा का तथा दसवें में मोक्षका; इस प्रकार इसमें प्रयोजनीभूत सात तत्त्वों की प्ररूपणा की गई है । ग्रन्थ यद्यपि शब्दशरीर से लघु है, पर अर्थ से गम्भीर व विशाल है । सूत्रसंख्या इसकी दि. परम्परा में ३५७ और श्वे. परम्परा में ३४४ है । इसका उपयोग धर्मद्रव्य ग्रनृत और आस्रव आदि शब्दों में हुआ है । १६. तत्त्वार्थाधिगम भाष्य - यह उपर्युक्त तत्त्वार्थसूत्र पर रचा गया भाष्य है, जो स्वोपज्ञ माना जाता है । पर कुछ विद्वान् इसे स्वोपज्ञ न मान कर पीछे की रचना मानते हैं'। इसमें मूल सूत्रों की व्याख्या करते हुए यथाप्रसंग अन्य भी कितने ही विषयों का विवेचन किया गया है। यहाँ प्रथम सूत्र की व्याख्या में मोक्ष के साधनभूत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीनों में पूर्व के प्राप्त होने पर उत्तर को भजनीय ( वह हो, अथवा न भी हो ) तथा उत्तर के प्राप्त होने पर पूर्व की प्राप्ति नियम से बतलाई गई है । परन्तु सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति सम काल में ही निर्दिष्ट की गई है । भाष्य के उक्त कथन का स्पष्टीकरण करते हुए सिद्धसेन गणी ने यह बतलाया है कि देव, नारक और तिर्यंच तथा मनुष्यों में किन्हीं के सम्यग्दर्शन के आविर्भूत हो जाने पर प्राचारादि अंगप्रविष्टका ज्ञान नहीं होता और न देश या सर्व चारित्र भी होता है, अतः ये दोनों सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में भजनीय हैं । यह सिद्धसेनगणि विरचित टीका के साथ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड बम्बई से दो भागों में प्रकाशित हुआ है । इसका उपयोग इन शब्दों भाष्य – अग्निकुमार, प्रङ्गप्रविष्ट, प्रङ्गवाह्य, प्रतिचार, प्रतिथिसंविभाग, अधिकमास, अधिगम सम्यग्दर्शन, अर्पित, अनीक, अमृत और अनृतानन्द आदि । सि. वृत्ति - गुरुलघु नामकर्म, अङ्गप्रविष्ट, अङ्गवाह्य, प्रतिथिसंविभाग, अधिकमास, अनिश्चितावग्रह, अनीक और अनृतानन्द श्रादि । १७. पउमचरिय - इसके रचयिता विमल सूरि हैं। ये नाइलकुलवंश को प्रमुदित करने वाले विजयसूरि के शिष्य और स्वसमय परसमय के ज्ञाता राहू नामक प्राचार्य के प्रशिष्य थे । प्रस्तुत राम१. देखिये 'श्वे. तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य की जांच' शीर्षक लेख – जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश पृ. १२५.४८. २. पउमच. ११८, ११७-१८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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