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________________ अनभिगृहीता भाषा] ५०, जैन-लक्षणावली [अनर्थदण्डविरति क्तिकं वा समतया मन्यते मौढ्यात् । (त. भा. सि. निबन्धनम् । (कर्मप्र. मलय. वृ. १-३, पृ. २०)। वृ.७-१८)। २ उपभुक्त प्राहार को सप्त धातु और मल-मूत्रादि जो सभी मत-मतान्तरों को समीचीन मानता हुआ रूप परिणमाने वाली शक्ति को अनभिसन्धिज वीर्य सयुक्तिक व युक्तिशन्य कथन को मूर्खतावश समान कहते हैं। अथवा, जो एकेन्द्रिय जीवों की विविध मानता है, उसकी दृष्टि (श्रद्धा) को अनभिगृहीता क्रिया का कारण हो उसे अनभिसन्धिज वीर्य समझना दृष्टि कहा जाता है। चाहिए। अनभिगृहीता भाषा-१. अनभिगृहीता भाषा अनभिहित-अनभिहितं स्वसिद्धान्तेऽनुपदिष्टम् । अर्थमनभिगृह्य या प्रोच्यते डित्यादिवदिति । (दशवं. (प्राव. मलय. वृ. नि. ८८२) । हरि. व. नि. ७-२७७); प्राव. हरि. व. म. हे. टि. अपने सिद्धान्त में अनुपदिष्ट या प्रकथित तत्त्व को पृ. ७६)। २. सा होइ अणभिगहिया जत्थ अणेगेसु अनभिहित कहते हैं । पृटुकज्जेसु । एगयराणवहारणमहवा दिच्छाइयं वयणं। अनर्थक्रिया-१. तद्विपरीता (अर्थदण्डरूपार्थक्रिया(भाषार. ७७); यत्र यस्यां अनेकेषु पृष्ट कार्येषु विपरीता) अनर्थक्रिया। (गु. गु. षट्. स्वो. व. पृ. मध्य एकतरस्यानवधारणमनिश्चयो भवति-एता- ४१)। २. तदर्थाभावे तद्ग्रहणमनर्थाय किया। वत्सु कार्येषु मध्ये किं करोमीति प्रश्नयेत् प्रतिभासते, (धर्मसं. मान. स्वो. व. ३, २७, ८२) । तत्कुर्वति प्रतिवचने कस्यापि शृङ्गग्राहिकयाऽनिर्धा- प्रयोजन रहित क्रिया को अनर्थक्रिया कहते है । रणात् सा ऽनभिगृहीता भवति । (भाषार.टी. ७७)। अनर्थदण्ड-१. कज्ज कि पि ण साहदि णिच्चं पावं १ अर्थ को नहीं ग्रहण करके बोली गई भाषा-जैसे करेदि जो अत्थो। सो खलु हवे अणत्थोxxx॥ डित्थ-डवित्थादि-को अनभिगहीता भाषा कहते हैं। (कार्तिके. ३४३) । २. उपकारात्यये पापादान२ अथवा एक साथ पूछे गये अनेक कार्यों में से किसी निमित्तमनर्थदण्डः । (त. वा. ७, २१, ४, त. श्लो. एक का भी निश्चय न करके उत्तर देने को अनभि- ७-२१)। ३. तद्विपरीतोऽनर्थदण्डः प्रयोजननिरगृहीता भाषा कहते हैं। पेक्षः, अनर्थः अप्रयोजनमनुपयोगो निष्कारणतेति अनभिग्रहा भाषा-अनभिग्रहा यत्र न प्रतिनिय- पर्यायाः । विनैव कारणेन भूतानि दण्ड यति, तथा तार्थावधारणम् । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ११-१६५)। कुठारेण प्रहृष्टस्तरुस्कन्ध-शाखादिषु प्रहरति, कृकप्रतिनियत अर्थ के निश्चय से रहित भाषा को लास-पिपीलिकादीन् व्यापादयति कृतसङ्कल्पः, न अनभिग्रहा भाषा कहते हैं। च तव्यापादने किञ्चिदतिशयोपकारि प्रयोजनं अनभिप्रेत (प्रणभिपेन)-xxxप्रणभिप्पेयो येन विना गार्हस्थ्यं प्रतिपालयितुं न शक्यते । अ पडिलोमो ॥ (उत्तरा. नि. १-४३)। (प्राव. हरि. वृ. ६, ८३; त. भा, सि. वृ. अपने लिए अनिष्ट या प्रतिकूल वस्तु को अनभि- ७-१६)। ४. प्रयोजनं विना पापादानहेतुरप्रेत कहते हैं। __ नर्थदण्डः । (चा. सा. पृ. ६)। ५. शरीराद्यर्थअनभियोग्य देवतेभ्यो (अभियोगेभ्यो)ऽन्ये कि- विकलो यो दण्डः क्रियते जनः सोऽनर्थदण्डः । (धर्मल्विषिकादयोऽनुत्तमा देवा उत्तमाश्च पारिषदादयो- सं. मान. स्वो. व. २, ३५, ८१)। ऽनभियोग्याः । (जयध. पत्र ७६४)। १ जिस अर्थ से—क्रिया से-कार्य तो कुछ भी अभियोग्य देवों के अतिरिक्त जो किल्विषिक प्रादि सिद्ध नहीं होता, किन्तु सदा पाप ही किया जाता प्रधम और पारिषद प्रादि उत्तम जाति के देव हैं वे है वह अनर्थदण्ड कहलाता है। अनभियोग्य देव कहलाते हैं। अनर्थदण्डविरति-१. अभ्यन्तरं दिगवधेरपाथिअनभिसन्धिजगीर्य (प्रणभिसंधिजवी रय)- केभ्यः सपापयोगेभ्यः । विरमणमनर्थदण्डव्रतं विदु१. असंवेइया खल-रसातिपरिणामणा सत्ती प्रणभि. व्रतधराग्रण्यः ॥ (रस्नक. ३-२८)। २. असत्यूसंधिजं वीरितं । (कर्मप्र. च. गा.१-३)। २. इतर- पकारे पापादान हेतुरनर्थदण्डः, ततो विरतिरनर्थदनभिसन्धिजम्-यद् भुक्तस्याहारस्य धातु-मलत्व- दण्डविरतिः । (स. सि. ७-२१)। ३. उपकारात्यये रूपपरिणामापादनकारणमेकेन्द्रियाणां वा तत्तक्रिया- पापादाननिमित्तमनर्थदण्डः ॥४॥ असत्युपकारे पापा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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