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जैन-लक्षणावली
३. भावनलोक-यहां २४ अधिकारों के द्वारा क्रम से भवनवासी देवों के निवासक्षेत्र, उनके भेद, चिह्न, भवनों की संख्या, इन्द्रों की संख्या व उनके नाम, दक्षिण व उत्तर इन्द्र, उनमें प्रत्येक के भवनों का प्रमाण, अल्पद्धिक आदि भवनवासियों के भवनों का विस्तार, भवन, वेदी, कूट, जिनभवन, प्रासाद, इन्द्रविभूति, भवनवासी देवों की संख्या, प्रायुप्रमाण, शरीर की ऊंचाई, अवधिज्ञान का विषयप्रमाण, गुणस्थान आदि, एक समय में उत्पन्न होने वाले व मरने वालों की संख्या, आगति, भवनवासियों की आयु के बन्धयोग्य परिणाम व सम्यक्त्वग्रहण के कारण; इन सबका वर्णन किया गया है:
४ नरलोक-इस महाधिकार में १६ अधिकारों के द्वारा क्रम से मनुष्यलोक का निर्देश, जम्बद्वोप, लवणसमुद्र , धातकीखण्डद्वीप, कालोदसमुद्र, पुष्करार्धद्वीप तथा इन अढ़ाई द्वीपों में स्थित मनुष्यों के भेद, संख्या, अल्पबहुत्व, अनेक भेदयुक्त गुणस्थान प्रादिकों का संक्रमण, मनुष्यायु के बन्ध के योग्य भाब, योनिप्रमाण, सुख, दुख, सम्यक्त्वग्रहण के कारण और मुक्ति प्राप्त करने वालों का प्रमाण; इन विषयों की चर्चा की गई है।
यह महाधिकार बहुत विस्तृत है । यहाँ उपर्युक्त १६ अधिकारों में से दूसरे अधिकार में जम्बूद्वीप का वर्णन करते हुए भरतक्षेत्र का वर्णन विस्तार से किया गया है। इसके अन्तर्गत, आर्यखण्ड के वर्णनप्रसंग में परिवर्तमान अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालों के भेदभूत सुषमसुषमा, सुषमा, सुषमदुष्षमा, दुष्षमसुषमा, दुष्षमा और अतिदुष्षमा कालों का वर्णन करते हुए भोगभूमियों की व्यवस्था, शलाकापुरुषों (२४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ६ बलदेव, ६ नारायण, ६ प्रतिनारायण) के नाम व संख्या तथा ११ रुद्रों के भी नामों का उल्लेख किया गया है। तीर्थंकरों का वर्णन करते हुए उनके जन्मस्थान आदि कितने ही ज्ञातव्य विषयों का विवेचन किया गया है। आगे भरतादि चक्रवतियों के आयुप्रमाण प्रादि का निरूपण करते हए नौ नारदों का भी निर्देश किया गया है। तीर्थकर मादि कितने भव्य जीव नियमतः मुक्ति को प्राप्त करने वाले हैं, इसकी भी सूचना यहाँ (४-१४७३) कर दी गई है ।
आगे दुष्षमाकाल के प्रसंग में गौतमादि अनुबद्ध केबलियों के धर्मप्रवर्तनकाल, अन्तिम सिद्ध व अन्तिम चारण ऋषि प्रादि, चतुर्दशपूर्वधरों आदि के अस्तित्व और श्रुततीर्थ के व्युच्छेद आदि की चर्चा की गई है । तत्पश्चात् शक, गुप्त, चतुर्मुख, पालक, विजयवंशज, मुरुण्डवंश, पुष्यमित्र, वसुमित्र-अग्निमित्र, गन्धर्व, नरवाहन, भत्थट्टण (भत्यान्ध्र), पुन: गुप्त और इन्द्रसुत चतुर्मुख कल्की, इनके राज्यकाल के प्रमाण का निर्देश किया गया है (१५०३-१०)। फिर अतिदुष्षमा काल में होने वाले परिवर्तन का निर्देश करते हुए प्रागे कम से उत्सर्पिणी के छह कालों की प्ररूपणा की गई है।
इस प्रकार भरतक्षेत्र का विस्तार से वर्णन करके तत्पश्चात् हिमवान् पर्वत, हैमवत क्षेत्र, महाहिमवान पर्वत रिवर्ष और निषध पर्वत का वर्णन करते हुए विदेह क्षेत्र व उसके मध्य में स्थित मेरु पर्वत की प्ररूपणा की गई है।
जिस प्रकार जम्बद्वीप के दक्षिण दिशागत क्षेत्र-पर्वतादिकों का कथन किया गया है इसी प्रकार प्रागे उसके उत्तर दिशा सम्बन्धी क्षेत्र-पर्वतादिकों का निरूपण किया गया है । तत्पश्चात् लवणसमुद्र और धातकीखण्ड द्वीप आदि का वर्णन करके मनुष्यों में गुणस्थानादि का विवेचन करते हुए इस महाधिकार को समाप्त किया गया है।
५. तिर्यग्लोक-इस महाधिकार में १६ अधिकारों के द्वारा क्रम से स्थावरक्षेत्र, उसके मध्य में तिर्यक्-त्र सक्षेत्र, नामनिर्देशपूर्वक द्वीप-समुद्रों की संख्या ब विन्यास, उनका अनेक प्रकार का क्षेत्रफल, तिर्यंचों के भेद, संख्या, प्रायु, आयु के बन्धयोग्य परिणाम, योनि, सुख-दुख, गुणस्थानादि, सम्यक्त्वग्रहण के कारण, गति-प्रागति और अल्पबहुत्व; इन वर्णनीय विषयों का विवेचन किया गया है।
तीर्थकरों से सम्बन्धित उन विषयों में से लगभग ५० विषयों की एक तालिका भाग २ के परिशिष्ट ७ में १०१३-२२ पृष्ठों में दे दी गई है।
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