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प्रस्तावना
२१
लाने का विधान (प्र. ४३.५०), उत्कृष्ट संख्यात एवं तीन-तीन प्रकार के असंख्यात व अनन्त की प्ररूपणा (पृ. १७६-१८३), द्वीप-सागरों का बादर क्षेत्रफल आदि (पृ. ५६०-६१०), अवगाहनाविकल्प (पृ. ६१८-६४०) तथा मानुषोत्तर पर्वत के आगे स्थित चन्द्र-सूर्यादि के विन्यास व संख्या आदि की प्ररूपणा (पृ. ७६१-६७) ।
उक्त गद्य भाग में से कुछ भाग षट्खण्डागम की टीका धवला में जैसा का तैसा उपलब्ध होता है । जैसे-त्रि. प्र. पृ. ४३-४६ व धवला पु. ४, पृ. ५१-५५ तथा त्रि. प. ७६४ से ७६६ व धवला पु. ४, पृ. १५१-१५५ । यहाँ विशेषता यह है कि जैसे धवलाकार के द्वारा यह कहा गया है कि यह तत्प्रायोग्य संख्यात रूपों से अधिक जम्बूद्वीप के अर्धच्छेद सहित द्वीप-सागरों के रूप मात्र राजु के अर्धच्छेदों के प्रमाण की परीक्षाविधि अन्य प्राचार्यों के उपदेश की परम्परा का अनुसरण नहीं करती है, उसकी प्ररूपणा केवल हमने त्रिलोकप्रज्ञप्ति सूत्र के अनुसार ज्योतिषी देवों के भागहार के प्रतिपादक सूत्र का पालम्बन करने वाली यूक्ति के बल से प्रकृत गच्छ को सिद्ध करने के लिए की है वैसे ही त्रिलोकप्रज्ञप्ति में भी यह कहा गया है कि यह तत्प्रायोग्य संख्यात रूपों से अधिक जम्बुद्वीप के अर्धच्छेद सहित द्वोप-समुद्रों के रूप प्रमाण राजु के अर्धच्छेद प्रमाण की परीक्षाविधि अन्य प्राचार्यों के उपदेश की परम्परा का अनुसरण नहीं करती है । वह केवल त्रिलोकप्रज्ञप्ति सूत्र का अनुसरण करने वाली है, ज्योतिषी देवों के भागहार के प्रतिपादक सूत्र का पालम्बन लेने वाली युक्ति के बल से प्रकृत गच्छ को सिद्ध करने के लिए यह प्ररूपणा कही गई है। विशेष इतना है कि धवला के उक्त सन्दर्भ में जो 'अम्हेहि (हमने)' पद उपलब्ध होता है वह यहां नहीं पाया जाता। इसके आगे धवला में जो 'प्रतिनियतसूत्रावष्टम्भ' आदि लगभग दो पंक्तियाँ हैं वे भी यहाँ नहीं उपलब्ध होती हैं। मागे का 'तदो ण एत्थ' इत्यादि सन्दर्भ (३-४ पंक्तियाँ) भी प्रायः दोनों में समान हैं।
इस प्रकार त्रिलोकप्रज्ञप्ति के इस गद्यभाग की स्थिति को देखते हुए यह निश्चित प्रतीत होता है कि उक्त गद्यभाग त्रिलोकप्रज्ञप्तिकार के द्वारा नहीं रचा गया है, पीछे यथाप्रसंग वह किसी अन्य के द्वारा इसमें जोड़ दिया गया हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में तीनों लोक सम्बन्धो महत्त्वपूर्ण विषषों की प्ररूपणा इस प्रकार की गई है
१. सामान्यलोक-वहाँ प्रथमतः मंगल स्वरूप पंच गुरुत्रों की स्तुतिपूर्वक शास्त्रविषयक मंगल, कारण (निमित्त), हेतु, प्रमाण, नाम और कर्ता इन छह का व्याख्यान किया गया है (७-८४) । तत्पश्चात् लोक के प्रसंग में पल्योपम, सागरोपम, सूचि-अंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगश्रेणि, जगप्रतर और लोक इन आठ प्रमाणभेदों का वर्णन किया गया है। अन्त में लोक के आधारभूत तीन वातवलयों के प्राकार व मोटाई आदि का प्रमाण दिखलाते हुए इस महाधिकार को समाप्त किया गया है।
२ नारकलोक-इस महाधिकार में १५ अधिकारों के द्वारा क्रम से नारकियों के निवास-क्षेत्र. उनकी संख्या, आयु का प्रमाण, शरीर की ऊंचाई, अवधिज्ञान का प्रमाण, उनमें सम्भव गुणस्थानादि (२० प्ररूपणायें), वहाँ उत्पन्न होने वाले जीवों की सम्भावना, जन्म और मरण का अन्तर, एक समय में उत्पन्न होने वाले व मरने वाले नारकियों की संख्या, नरकों से प्रागमन (जिन पर्यायों को वे प्राप्त कर सकते हैं), नारक आयु के बन्धयोग्य परिणाम, जन्मभूमियां, नरकों में प्राप्त होने वाला दुःख और सम्यग्दर्शनग्रहण के कारण; इन सब की प्ररूपणा की गई है।
१. धवला पु. ४, पृ.१५७ (एसा तप्पाप्रोग्गसंखेज्ज.....")। २. ति. प. २, पृ. ७६६ (एसा तप्पाउग्गसंखेज्जा.....")। ३. इस प्रकार की पद्धति प्राचीन प्राचार्य परम्परा में रही है । धवलाकार प्राचार्य वीरसेन स्वामी ने
भी इस पद्धति को अपना कर उक्त मंगलादि छह की धवला के प्रारम्भ में प्ररूपणा की है। धवला पु. १, पृ. ८-७२.
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