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जैन-लक्षणावली 'जयध.-क. पा.' का उल्लेख करके उसकी पृष्ठसंख्या और टिप्पणसंख्या दे दी गई है। इसी प्रकार धवला की भी पुस्तक, पृष्ठ और टिप्पण की संख्या अंकित कर दी गई है।
७. कितने ही लक्षण अभिधान राजेन्द्र कोष में उपलब्ध होते हैं, परन्तु वहां ग्रन्थ का पूर्ण संकेत न होने से विवक्षित लक्षण किस ग्रन्थ का है, इसकी खोज नहीं की जा सकी। ऐसे लक्षणों के नीचे 'अभि. रा.' का संकेत करके उसके भाग व पृष्ठ की संख्या अंकित कर दी गई है।
८. भगवती सत्र और व्यवहार सत्र के बहुत से लक्षण संग्रहीत हैं । परन्त भगवती सत्र के जिस संस्करण से लक्षण लिये गये हैं, उसके यहां न मिल सकने से वैसे ही अंक दे दिये गये हैं । गुजरात विद्यापीठ से प्रकाशित भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) के यहां प्रथम, तृतीय और चतुर्थ ये तीन खण्ड हैं, द्वितीय खण्ड नहीं हैं। इनमें जो लक्षण उपलब्ध हो सके हैं उनका संकेत में उल्लेख कर दिया गया है। व्यवहार सूत्र के १० उद्देश हैं। उनमें यहां द्वितीय उद्देश अपूर्ण है तथा तृतीय सर्वथा ही नहीं है । व्यवहार सूत्र(भाष्य) से जो लक्षण लिये गये हैं वे सम्भवतः किसी दूसरे संस्करण से लिये गये हैं। उनमें से जो यहां के संस्करण में खोजे जा सके हैं उनके लिए उद्देश, गाथा और पृष्ठ की संख्या दे दी गई है, परन्तु जो इसमें उपलब्ध नहीं हो सके उनका संकेत उसी रूप में दिया गया है।
६. अनेक ग्रन्थों से उद्धत लक्षणों में जहां शब्दशः और अर्थतः समानता रही है वहां प्रायः प्राचीनतम किसी एक ग्रन्थ का प्रारम्भ में संकेत करके तत्पश्चात् शेष दूसरे ग्रन्थों का अर्धविराम (6) चिह्न के साथ संकेत मात्र कर दिया गया है।
१०. जहां प्रकृत लक्षण किसी एक ही ग्रन्थ में कई स्थलों में उपलब्ध हुअा है वहां एक ही संख्या में उसके उन स्थलों का संकेत (B) इस चिह्न के साथ कर दिया गया है।
११. तत्त्वार्थवार्तिक के लक्षणों में वार्तिक को काले टाइप में और उसके विवरण (स्पष्टीकरण) को सफेद टाइप में मुद्रित कराया गया है। षट खण्डागम के अन्तर्गत लक्षणों में 'षट्खं.' के आगे डैश (-) देकर 'धव. पु. १-२' आदि की पृष्ठ संख्या दे दी गई है। धवला टीका से संगृहीत लक्षणों के लिए मात्र 'धव. पु.' संकेत किया गया है।
ग्रन्थ-परिचय प्रस्तुत ग्रन्थ में जिन ग्रन्थों के लक्षण वाक्यों का संग्रह किया गया है उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
१. षटखण्डागम-यह प्राचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि द्वारा विरचित एक महत्त्वपूर्ण कर्मग्रन्थ है । रचनाकाल इसका विक्रम की प्रथम शताब्दी है। यह छह खण्डों में विभक्त है । छह खण्डों में विभक्त होने से वह 'षट्खण्डागम' नाम से प्रसिद्ध हया है। वे छह खण्ड ये हैं-जीवस्थान, क्षद्रकबन्ध, बन्धस्वामित्वविचय, वेदना, वर्गणा और महाबन्ध है। इनमें से प्रथम खण्डभूत जीवस्थान के अन्तर्गत सत्प्ररूपणा मात्र के रचयिता प्राचार्य पुष्पदन्त हैं। शेष सभी ग्रन्थ आचार्य भूतबलि के द्वारा रचा गया है।
निरन्तर जन्म-मरण को प्राप्त करने वाला यह संसारी प्राणी यदि कभी देव होता है तो कभी नारकी होता है, कभी मनुष्य होता है तो कभी तियंच होता है, कभी विशिष्ट ज्ञानी होता है तो कभी अल्पज्ञानी होता है, कभी अतिशय सुखी होता है तो कभी भयानक दुःख को सहता है, कभी कामदेव जैसा स्वरूप होता है तो कभी बेडौल और कुरूप होता है, कभी उत्तम कुल में जन्म लेकर लोकमान्य होता है तो कभी नीच कूल में जन्म लेकर धिक्कारा जाता है, तथा कभी बिना किसी प्रकार के परिश्रम के अतिशय सम्पत्तिशाली होता है तो कभी दिन-रात परिश्रम करता हुमा कुटुम्ब के भरण-पोषण योग्य भी पैसा नहीं प्राप्त कर पाता है। इस प्रकार सभी संसारी प्राणी सुख तो अल्प, किन्तु दुःख ही अधिक पाते हैं। इस विषय में विचार करने पर प्रतीत होता है कि इसका कारण स्वकृत कर्म है। प्राणी निन्द्य या उत्तम जैसा कुछ भी पाचरण करता है, तदनुसार उसके कर्म का बन्ध हना करता है। इस प्रकार बन्ध को प्राप्त होने वाले उस कर्म में कषाय की तीव्रता व मन्दता के अनुसार स्थिति
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