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अध्यात्म ]
१ स्व श्रौर पर के विवेक के बिना केवल जीव का निश्चय होने को श्रध्यवसान कहते हैं । ३ श्रधिअतिशय हर्ष-विषादसे जो अधिक अवसान चिन्तन होता है उसका नाम श्रध्यवसान है। यह अध्यवसान का निरुक्त लक्षण है । मन का संकल्प और प्रध्यवसान ये दोनों समानार्थक हैं ।
४१, जैन-लक्षणावली
श्रध्यात्म - १. गतमोहाधिकाराणामात्मानमधिकृत्य या । प्रवर्तते क्रिया शुद्धा तदध्यात्मं जगुर्जिनाः ॥ ( अध्या. सा. २ - २ ) । २. ग्रात्मानमधिकृत्य स्याद्यः पञ्चाचारचारिमा । शब्दयोगार्थ निपुणास्तदध्यात्मं प्रचक्षते ।। ( श्रध्यात्मो. १-२ ) ।
१ निर्मोह अवस्था में श्रात्मा को अधिकृत करके जो शुद्ध क्रिया प्रवर्तित होती है उसका नाम श्रध्याम है ।
श्रध्यात्मक्रिया - १ कोङ्कणसाघोरिव यदि सुता: सम्प्रतिक्षेत्रवल्लराणि ज्वलयन्ति, तदा भव्यमित्यादि चिन्तनमध्यात्मक्रिया । ( धर्मसं. मान. स्वो वृ. ३, २७, पृ. ८२ ) । २. अध्यात्मक्रिया चित्तकलमलकरूपा । (गु. गु. ष. वृत्ति पू. ४१ ) । २ चित्त की कलमलक रूप क्रिया का नाम अध्यामक्रिया है ।
श्रध्यात्ममयी क्रिया - प्र पुनर्बन्धकाद्यावद् गुणस्थानं चतुर्दशम् । क्रमशुद्धिमती तावत् क्रियाऽध्यात्ममयी मता ।। ( श्रध्या. सा. २ - ४ ) ।
पुनर्बन्धक - फिर से उत्कृष्ट बन्ध न करने वाले - गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक क्रमशः बढ़ने वाली विशुद्धिरूप क्रिया को अध्यात्ममयी क्रिया कहते हैं । अध्यात्मयोग - १. प्रात्ममनोमरुत्तत्त्वसमतायोगलक्षणो । ह्यध्यात्मयोग: XXX II ( यशस्ति. ६ - १ ) । २. तत्र अनादिपरभावं प्रोदयिकभावरमणीयताधर्मत्वेन निर्धार्य तत्पुष्टिहेतुक्रियां कुर्वन् प्रधर्मं धर्मवृत्त्या इच्छन् प्रवृत्तः स एव निरामयः निःसङ्गशुद्धात्मभावनाभावितान्तःकरणस्य स्वभाव एव धर्म इति योगवृत्त्या श्रध्यात्मयोगः । ( ज्ञानसार वू. ६-१, पू. २२) । १ आत्मा, मन और वायु के श्रध्यात्मयोग कहते हैं । श्रध्यात्मविद्या - अधिकमधिकृतं वाऽधिष्ठितं वा
ल. ६
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[ ध्रुव प्रत्यय
यदात्मन्यधिगमजनितं वा निस्तरङ्गान्तरङ्गम् । निरबधि निरवद्यं वेदनं मुक्तिहेतुः स्फुटघटितनिरुक्तिः संवमध्यात्मविद्या ॥ ( श्रात्मप्र. ४८ ) । आत्मविषयक ज्ञान से जो संकल्प-विकल्प से रहित निर्मल अन्तरङ्ग होता है, यही प्रध्यात्मविद्या है। श्रध्यात्मवैरिणी क्रिया - आहारोपधिपूर्जाद्वगौरवप्रतिबन्धतः । भवाभिनन्दी यां कुर्यात् क्रियां साSध्यात्मवैरिणी ॥ ( श्रध्यात्मसार २ - ५ ) ।
अपने संसार को वृद्धिगत करने वाले जीव के द्वारा आहार, परिग्रह, पूजा व ऋद्धि गौरव आदि से सम्बद्ध जो क्रिया की जाती है वह अध्यात्मवैरिणी कही जाती है ।
श्रध्यापकवर्णजनन --- देखो उपाध्यायवर्णजनन । १. अधिगतश्रुतार्थ याथातथ्यवाच्यवाचकानुरूपव्याख्याना: निरस्तनिद्रा तन्द्रा - प्रमादाः सुचरिताः सुशीला: सुमेधसः इत्यध्यापकवर्णजननम् । (भ. श्री. विजयो. टी. १ - ४७) । २. उपेत्य विनयेन ढौकित्वा sated श्रुतमेतेभ्य इति उपाध्यायाः । प्रबुद्धजिना - गमार्थयाथातथ्याः सुचरितचुडामणयः षट्तर्की सुरस्रोतस्विनीनदीष्णमतयो निरस्तनिद्रा तन्द्रा-प्रमादाः सुमेधसः शिष्यमेधानुरूपव्याख्याना इत्यध्यापकवर्णजननम् । (भ. श्री. मूला. टी. ४७ ) । पठितश्रुत के अर्थ का यथार्थ वाच्य वाचक भावके अनुसार व्याख्यान करने वाले अध्यापक - उपाध्याय - निद्रा, श्रालस्य व प्रमाद से रहित होते हुए अपने पद के योग्य उत्तम श्राचरण करनेवाले व निर्मल बुद्धि के धारक होते हैं। इस प्रकार अध्यापकों की स्तुति करने का नाम श्रध्यापकवर्णजनन है । श्रध्येषरणा - १. प्रध्येषणीये प्रयोक्तुरनुग्रहद्योतिकाऽध्येषणा । (शास्त्रवा.टी. ३ - ३) । २. अध्येषणा सत्कारपूर्वो व्यापारः । (भ्रष्टस. यशो. वृ. ३, पृ. ५८ ) । २ सत्कार - पूर्वक किये जाने वाले व्यापार को श्रध्येषणा कहते हैं ।
ध्रुव प्रत्यय - देखो अध्रुवावग्रह । स एवायमहमेव स इति प्रत्ययो ध्रुवः, तत्प्रतिपक्षः प्रत्ययः ध्रुवः । ( धव. पु. ६, पृ. १५४ ) ; विद्युत्प्रदीपएक रूप समायोग को ज्वालादी उत्पाद - विनाशविशिष्टवस्तुप्रत्ययः अध्रुवः । उत्पाद - व्यय- ध्रौव्यविशिष्टवस्तुप्रत्ययोऽपि अध्रुवः, ध्रुवात् पृथग्भूतत्वात् । ( धव. पु. १३, पृ. २३९ ) ।
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