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उत्तरितदोष] २५२, जैन-लक्षणावली
[उत्पाद उत्तरितदोष-xxx तस्योत्तरितमुन्नमः । लोकं जानाति । (धव. पु. १३, पृ. ३४६) । (अन. ध. ८-११५); उत्तरितं नाम दोषोऽस्ति। उत्पन्न हुए ज्ञान के द्वारा देखना जिसका स्वभाव है कोऽसौ ? उन्नमः । कस्य ? तस्य मूर्ध्नः । (अन. उसे उत्पन्नज्ञानदर्शी कहते हैं। स्वयं उत्पन्न हुए ध. स्वो. टी. ८-११५)।
ज्ञान से देखने वाले भगवान सब लोक को जानते हैं। शिर को ऊपर उठाकर कायोत्सर्ग करना, यह उस उत्पन्न मिश्रिता-उप्पण्णमीसिया सा उप्पन्ना कायोत्सर्ग के ३२ दोषों में से एक (१०वां) उत्त- जत्थ मीसिया हंति । संखाइ पूरणत्थं सद्धिमणुप्पन्नरित नाम का दोष है।
भावेहि ।। (भाषार. ५८); सा उत्पन्नमिश्रिता उत्थितोत्थितकायोत्सर्ग-देखो उत्सतोत्सतका- इति विधेयनिर्देशः, यत्रानुत्पन्नभावः सार्द्ध संख्यायाः योत्सर्ग। धर्म शुक्ले वा परिणतो यस्तिष्ठति तस्य पूरणार्थ उत्पन्ना मिश्रिता भवन्ति । (भाषार. टी. कायोत्सर्ग उत्थितोत्थितो नाम । द्रव्य-भावोत्थान- ५८)। समन्वितत्वादूत्थानप्रकर्षः उत्थितोत्थितशब्देनोच्यते।। जिस भाषा में अनुत्पन्न भावों के साथ संख्या की (भ. प्रा. विजयो. टी. ११६) ।
पूर्ति के लिए उत्पन्न भी पदार्थों को सम्मिलित धर्मध्यान और शक्लध्यान में परिणत जीव के करके कहा जावे उसे उत्पन्न मिश्रिता भाषा कहते कायोत्सर्ग को उत्थितोत्थित या उत्सतोत्सृत कायो- हैं। जैसे किसी ग्राम में पांच अथवा दस से अधिक त्सर्ग कहते हैं। उत्थितोत्थित शब्द से यहां द्रव्य व बच्चों के उत्पन्न होने पर 'प्राज दस बच्चे उत्पन्न भावरूप उत्थान से युक्त उत्थान का प्रकर्ष ग्रहण हुए हैं। ऐसा कहना। किया गया है।
उत्पन्न विगतमिश्रिता-उप्पन्नविगयमीसियमेयं उत्पत्ति-१. पूर्वावधिपरिच्छिन्नवस्तुसत्तासम्बन्ध- पभणंति जत्थ खलु जुगवं । उप्पन्ना विगमा वि य ऊणलक्षणादुत्पत्तेः । (सिद्धिवि. वृ. ४-६, पृ. २४६); ब्भहिया भणिज्जति ।। (भाषार.६०); एतां भाषाआत्मलाभलक्षणा उत्पत्तिः । (सिद्धिवि. टी. ४-६, मुत्पन्नविगतमिश्रितां प्रभणन्ति श्रुतधराः, यत्र यस्यां प. २५०) । २. अपूर्वाकारसंप्राप्तिरुत्पत्तिरिति भाषायां खनु निश्चयेन उत्पन्ना विगता अपि च भावा कीर्त्यते । (भावसं. वाम. ३८०)।
ऊना अधिका युगपद् भण्यन्ते । (भाषार. टी. ६०)। १ पूर्व अवधि से निश्चित वस्तु की सत्ता के सम्बन्ध जिस भाषा में उत्पन्न और विगत दोनों ही भाव का नाम उत्पत्ति है। अभिप्राय यह कि वस्तु के हीनता या अधिकता के साथ युगपत् कहे जावें उसे स्वरूप का जो लाभ है यही उसकी उत्पत्ति कही उत्पन्न विगतमिश्रिता भाषा कहते हैं। जैसे-'इस जाती है।
ग्राम में बस उत्पन्न हुए हैं और दस ही मरे हैं' उत्पत्तिकषाय-उत्पत्तिकषायो यस्माद् द्रव्यादेबर्बा- ऐसा कहना। ह्यात् कषायप्रभवस्तदेव कषायनिमित्तत्वाद् उत्पत्ति- उत्पात-उत्पातं सहजरुधिरवृष्टयादिलक्षणोत्पातकषायः इति । उक्तं च-किं एत्तो कट्टयरं जं मूढो फलनिरूपकं निमित्तशास्त्रम् । (समवा. अभय. वृ. खाणुगंमि अप्फिडियो। खाणुस्स तस्स रूसइण २६, पृ. ४७)। अप्पणो दुप्पप्रोगस्स ।। (प्राव. नि. हरि. वृ. ६१८, पृ. जिस शास्त्र में स्वभाव से होने वाली रुधिर की ३६०)।
वर्षा प्रादिरूप उपद्रवों के फल का वर्णन किया गया जिस बाह्य द्रव्य के निमित्त से कषाय की उत्पत्ति हो उसे उत्पात निमित्त कहते हैं। हो उसे कषायोत्पत्ति का निमित्त होने से उत्पत्ति- उत्पाद-१. चेतनस्याचेतनस्य वा द्रव्यस्य स्वां कषाय कहा जाता है। उदाहरणार्थ यदि कोई मूर्ख जातिमजहत उभयनिमित्तवशाद् भावान्तरावाप्तिव्यक्ति स्थाणु (ठूठ) से पाहत होता है तो वह उस रुत्पादनमुत्पाद: । (स. सि. ५-३०; त. वृत्ति श्रुत. स्थाणुपर तो क्रोधित होता है, किन्तु अपनी दूषित ५-३०)। २. स्वजात्यपरित्यागेन भावान्तरावाप्तिप्रवृत्ति पर क्रोधित नहीं होता।
रुत्पादः । चेतनस्य अचेतनस्य वा द्रव्यस्य स्वजातिमउत्पन्नज्ञानदर्शी-उत्पन्नज्ञानेन दृष्टं शीलमस्ये- जहतः भावान्तरावाप्तिरुत्पादनमुत्पाद इत्युच्यते त्युत्पन्नज्ञानदर्शी, स्वयमुत्पन्नज्ञानदर्शी भगवान् सर्व- मृत्पिण्डस्य घटपर्यायवत् । (त. वा. ५, ३०, १)।
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