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जैन-लक्षणावली जानना चाहिये । इसी पद्धति से यहां प्रश्नोत्तरपूर्वक उसका विचार किया गया है। यह खण्ड उक्त संस्था से ८वीं जिल्द में प्रकाशित हुआ है।
(४) वेदनाखण्ड-इस खण्ड को प्रारम्भ करते हए प्रथमतः 'णमो जिणाणं, णमो प्रोहिजिणाणं' आदि ४४ सूत्रों द्वारा मंगल किया गया है। पश्चात् अग्रायणीय पूर्व के अन्तर्गत पाँचवीं वस्तु (अधिकारविशेष) के चतुर्थ प्राभृतभूत कर्मप्रकृति-प्राभृत कृति-वेदनादि २४ अनुयोगद्वारों का निर्देश करते हुए नामकृति, स्थापनाकृति, द्रव्यकृति, गणनाकृति, ग्रन्थकृति, करणकृति और भाबकृति इन सात कृतियों की प्ररूपणा की गई है । तत्पश्चात् वेदनानिपेक्ष, वेदनानयविभाषणता, वेदनानामविघान, वेदनाद्रव्यविधान, वेदनाक्षेत्रविधान, वेदनाकालविधान, वेदनाभावविधान, वेदनाप्रत्ययविधान, वेदनास्वामित्वविधान, वेदनावेदनविधान, वेदनागतिविधान, वेदनाअनन्तरविधान, वेदनासंनिकर्षविधान, वेदनापरिणामविधान, वेदनाभागाभागविधान और वेदना-अल्पबहुत्व इन १६ अनुयोगद्वारों के प्राश्रय से वेदना की प्ररूपणा की गई है। यह खण्ड उक्त संस्था द्वारा ६ से १२ इन चार जिल्दों में प्रकाशित हुआ है।
(५) वर्गणा-इस खण्ड के प्रारम्भ में प्रथमतः नाम-स्थापनादिरूप तेरह प्रकार के स्पर्श की प्ररूपणा स्पर्शनिक्षेप व स्पर्शनयविभाषणता प्रादि १६ (वेदनाखण्ड के समान) अनुयोगद्वारों के आश्रय से की गई है। अनन्तर नामकर्म, स्थापनाकर्म, द्रव्यकर्म, प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अधःकर्म, ईर्यापथकर्म, तप:कर्म, क्रियाकर्म और भावकर्म इन दस कर्मों का विवेचन किया गया है । इन कर्मों का निरूपण आचारांग में भी किया गया है । तत्पश्चात् निक्षेपादि १६ अनुयोग द्वारों के आश्रय से कर्म की मूल और उत्तर प्रकृतियों की प्ररूपणा की गई है।
कर्म से सम्बन्धित ये चार अवस्थायें हैं-बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान । द्रव्य का द्रव्य के साथ अथवा द्रव्य भाव का जो संयोग या समवाय होता है उसका नाम बन्ध है। इस बन्ध के करने वाले जो जीव हैं वे बन्धक कहलाते हैं। बन्ध के योग्य जो पुदगल द्रव्य हैं उन्हें बन्धनीय कहा जाता है। बन्धविधान से अभिप्राय बन्धभेदों का है। वे चार हैं-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश । इनमें यहां बन्ध, बन्धक और बन्धनीय इन तीन की प्ररूपणा की गई है । बन्धविधान की प्ररूपणा विस्तार से छठे खण्ड महाबन्ध में की गई है। यह खण्ड उक्त संस्था से १३ और १४ इन दो जिल्दों में प्रकाशित हुआ है।
इन पांच खण्डों पर प्राचार्य वीरसेन द्वारा विरचित ७२००० श्लोक प्रमाण धवला नाम की टीका है, जो शक सम्बत् ७३८ (वि० सं०८७३) में उनके द्वारा समाप्त की गई है। उक्त संस्था द्वारा - इस टीका के साथ ही मूल ग्रन्थ १४ जिल्दों में प्रकाशित हया है।
आगे इस धवला टीका में कर्मप्रकृतिप्राभूत के कृति आदि २४ अनुयोगद्वारों में जो निबन्धन आदि . शेष १८ अनुयोगद्वार मूल ग्रन्थकार के द्वारा नहीं प्ररूपित हैं, उनकी प्ररूपणा संक्षेप से वीरसेनाचार्य के
द्वारा की गई है। इस प्रकार वीरसेनाचार्य द्वारा प्ररूपित वे अठारह अनुयोगद्वार उक्त संस्था द्वारा - १५ और १६ इन दो जिल्दों में प्रकाशित किये गये हैं।
. (६) महाबन्ध-यह प्रस्तुत षट् खण्डागम का अन्तिम खण्ड है। इसमें प्रकृति, स्थिति, अनुभाग - और प्रदेश इन पूर्वनिर्दिष्ट बन्ध के चार भेदों की प्ररूपणा विस्तार से की गई है। इस पर कोई टीका
नहीं है । वह मूलग्रन्थकार प्रा. भूतबलि के द्वारा इतना विस्तार से लिखा गया है कि सम्भवतः उसके
१. णामं ठवणाकम्मं दव्वकम्म पयोगकम्म च । समूदाणिरियावहियं प्राहाकम्म तवोकम्मं ॥ किइकम्म
भावकम्म दसविहकम्म समासम्रो होई । प्राचारांग नि. गा. १६२-६३, पृ. ८३. २. भूदबलिभडारएण जेणेदं सुत्तं देसामासियभावेण लिहिदं तेणेदेण सुत्तेण सूचिदसेसदारसग्रणियोग
हाराणं किंचिसंखेवेण परूवणं कस्सामो। धव. पु. १५, पृ. १ (विशेष के लिए देखिये अनेकान्त वर्ष १६, किरण ४, पृ. २६५-७० में 'षट्खण्डागम और शेष १८ अनुयोगद्वार' शीर्षक लेख) ।
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