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अनिधत्त]
६२, जैन-लक्षणावली [अनिवृत्ति(वर्ति)करण अनिधत्त-तविबरीयं (णिवत्तविवरीयं-जं पदे- १ स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अभिनिबोध सग्गमोकड्डिज्जदि, उक्कडुिज्जदि, परपडि संका- (अनुमान) रूप ज्ञान को अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष कहते मिज्जदि, उदये दिज्जदि तं) प्रणिधत्तं । (धव. पु. हैं । ४ एक मात्र-इन्द्रियनिरपेक्ष-मन से उत्पन्न १६, पृ. ५७६)।
होने वाले ज्ञान को अनिन्द्रियप्रत्यक्ष कहा जाता है जिस कर्मप्रदेशाग्र का अपकर्षण, उत्कर्षण और पर- जो उपर्युक्त स्मृति प्रादि रूप है। प्रकृति संक्रमण किया जा सकता है तथा जो उदय अनिन्द्रिय सुख-अणुवमममेयमक्खयममलमजरममें भी दिया जा सकता है उसे अनिधत्त कहते हैं। रुजमभयमभवं च । एयंतियमच्चंतियमवावाधं सहअनिन्द्रिय-अनिन्द्रियं मनः अन्तःकरणमित्यनर्था- मजेयं ॥ (भ. प्रा. २१५३)। न्तरम् । xxx ईषदिन्द्रियमनिन्द्रियमिति, यथा अनुपम, अमेय, अक्षय, निर्मल, अजर, अरुज (रोगअन्दरा कन्या इति । (स. सि. १-१४) । २ अनि- रहित), भयविरहित, संसारातीत-मुक्तिजनितन्द्रियं मनोऽनुदरावत् ॥२॥ मनोऽन्तःकरणमनिन्द्रिय- ऐकान्तिक (असहाय), प्रात्यन्तिक (अविनश्वर), मित्युच्यते । (त. वा. १, १४, २)। ३. नेन्द्रियम- निर्बाध और अजेय सुख को अनिन्द्रिय या प्रतीन्द्रिय निन्द्रियम, नो-इन्द्रियं च प्रोच्यते । अत्रेषदर्थे प्रति- करो। बन्धो द्रष्टव्यो यथाऽनुदरा कन्येति । तेनेन्द्रियप्रति
अनिबद्ध मंगल-जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण षेधेनात्मनः करणमेव मनो गृह्मते, तदन्तःकरणं
कयदेवदाणमोक्कारो तमणिबद्धमंगलं । (धव. पु. चोच्यते । (त. सुखबो. वृ. १-१४)। ४. इन्द्रियादन्यदनिन्द्रियं मनः अोघश्चेति । (त. भा. सिद्ध.
सूत्र के प्रादि में सूत्रकार के द्वारा जो देवता-नमव. १-१४)।
स्कार किया तो गया हो, पर ग्रन्थ में निबद्ध न १ इन्द्रियों के समान बाह्य में दृष्टिगोचर न होकर
किया गया हो, उसे अनिवद्ध मंगल कहते है। इन्द्रिय केही कार्य (ज्ञानोत्यादन) के करनेवाले
अनियत विहार-अनियतविहारोऽनियतक्षेत्रावासः। अन्तःकरण रूप मन को अनिन्द्रिय कहते हैं। प्रनिन्द्रिय जीवन सन्ति इन्द्रियाणि येषां तेऽनि
(अन. ध. स्वो. टी. ७-६८)। न्द्रियाः। के ते ? अशरीराः सिद्धाः । (धव. पु. १,
अनियत क्षेत्र में रहने का नाम अनियतविहार है । पृ. २४८); ण य इंदिय-करणजुदा अवग्गहाई- अनिर्वृत्तिकर-निवृत्तिः सुखम्, अनिवृत्तिः पीडा, हि गाहया अत्थे । णेव य इंदियसोक्खा अणिदिया- तत्करणशालाभनवृत्तिकरः । (प्राव. मलय. वृत्ति णतणाण-सहा ।। (प्रा. पञ्चसं. १-७४; धब. पु. १, १०८६)। प.२४८ उ.; गो. जी. १७३)।
स्वभावतः पीडा उत्पन्न करने वाले को अनिवृत्तिजो इन्द्रिय रूप करणों से युक्त होकर अवग्रहादि के कर कहते हैं। द्वारा पदार्थों को ग्रहण नहीं करते तथा इन्द्रियजन्य अनि रिम-यत्पुनर्गिरिकन्दरादौ तदनिहरणासुख से रहित हैं ऐसे प्रतीन्द्रिय अनन्त ज्ञान (केवल- दनिर्हारिमम् । (स्थाना. अभय. वृ. २, ४, १०२)। ज्ञान) धारक मुक्त जीव अनिन्द्रिय-इन्द्रियविहीन पर्वत की गुफा आदि में जो पादपोपगमन-छिन्न -कहे जाते हैं।
होकर गिरे हुए पादप (वृक्ष) के समान उपगमन अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष-१. अनिन्द्रियप्रत्यक्षं स्मृति
-अतिशय निश्चेष्ट अवस्था युक्त मरण होता संज्ञा-चिन्ताभिनिबोधात्मकम् । (लघी. स्वो. व.
है वह अनिर्झरिम मरण कहलाता है। कारण यह ६१)। २. अनिन्द्र यप्रत्यक्षं बह्वादिद्वादशप्रकारार्थ- कि बसतिमें हुए मरण में जैसे शरीर का निर्हरण विषयमवग्रहादिविकल्पमष्टचत्वारिंशत्संख्यम् । होता है वैसे वह यहाँ नहीं होता। (प्रमाणप. पृ. ६८)। ३. अनिन्द्रियादेव विशुद्धि- अनिवृत्ति (वर्ति) करण-१. यतस्तावन्न निवसव्यपेक्षादुपजायमानमनिन्द्रियप्रत्यक्षम् । (प्र. र. र्तते यावत्सम्यक्त्वं न लब्धमित्यतोऽनिवर्तिकरणम् । मा. २-५)। ४. केवलमनोव्यापारप्रभवमनिन्द्रियप्र- (त. भा. हरि. वृत्ति १-३, पृ. २५); २. निवर्तनत्यक्षम् । (लघीय. अभय. वृ. ६१)।
शीलं निति, न निति अनिवर्ति, प्रा सम्यग्दर्शन
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