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श्राहारक-तैजस-कार्मणब. ]
श्राहारक-तैजस-कार्मरणबन्धन - श्राहारक- तैजसकार्मणबन्धननामाप्येवमेव ( प्राहारकपुद्गलानामाहारक - तैजस- कार्मणपुद्गलैरेव बन्धनम् श्राहारकतंजस - कार्मणबन्धनम् ) । ( कर्मवि. पू. व्या. १०४, पृ. ४३) ।
जो कर्म श्राहारक, तैजस और कार्मण पुद्गलों को परस्पर सम्बन्ध के योग्य करता है उसे श्राहारक तेजस - कार्मणबन्धन नामकर्म कहते हैं । श्राहारक- तैजसबन्धन - १. यथाऽऽहारकपुद्गलानामाहारक पुद्गलैरेवाहारका हारकबन्धनं तथाऽऽहारक-तैजसपुद्गलैरेवाहारक- तैजसबन्धनं द्रष्टव्यं द्वितीयम् । ( कर्मवि. पू. व्या. १०४ ) । २ तेषामेवाहारकपुद्गलानां पूर्वगृहीतानां गृह्यमाणानां च तैजसपुद्गलैर्गृह्यमाणैः पूर्वगृहीतैश्च सह सम्बन्धः आहारकतैजसबन्धनम् । (पंचसं. मलय. वृ. ३-११, पृ. १२१; कर्मप्र. यशो. टी. १, पृ. ७) । जो कर्म आहारक और तेजस पुद्गलों को परस्पर में लाख के समान सम्बन्ध के योग्य करता है उसे श्राहारक- तैजसबन्धन नामकर्म कहते हैं । श्राहारकद्रव्यवर्गरणा - देखो श्राहारद्रव्यवर्गणा । आहारगदव्ववग्गणा णाम प्रोरालिय-वेउब्विय श्राहारगाणं तिन्हं सरीराणं गहणं पवत्तति । ( कर्मप्र. चू. १-१८, पृ. ४० ) ।
जिस वर्गणा के पुद्गलस्कन्धों को ग्रहण कर प्रौदारिकादि तीन शरीरों की उत्पत्ति प्रवर्तित होती है उसे श्राहारकद्रव्यवर्गणा कहते हैं । श्राहारकबन्धन - १. तेसि जं संबंध अवरोप्पर पुग्गलाणमिह कुणइ । तं जउसरिसं जाणस आहारगबंध पढमं ।। ( कर्मवि. ग. १०३, पृ. ४३ ) । २. यदुदयादाहारकशरीरपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परं तैजस- कार्मणपुद्गलैश्च सह सम्बन्धस्तदाहारकबन्धनम् । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २२, २१३, पृ. ४७० ) ।
१ जो कर्म बद्ध और बध्यमान श्राहारक शरीर के योग्य पुद्गलों को लाख के समान परस्पर में सम्बन्ध के योग्य करता है उसे श्राहारकबन्धन नामकर्म कहते हैं । २ जिस कर्मके उदय से गृहीत और गृह्यमाण आहारक शरीर के पुद्गलोंका परस्पर में तथा तेजस और कार्मण शरीर के पुद्गलों के साथ भी ल. २६
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२२५, जैन-लक्षणावली
[श्राहारकशरीराङ्गोपाङ्ग
सम्बन्ध हो उसे आहारकबन्धन कहते हैं । श्राहारक योग - श्राहरदि श्रणेण मुणी सुहुमे प्रत्थे सयस्स संदेहे । गत्ता केवलिपासं तम्हा श्राहारगो जोग । ( व. पु. १, पृ. २६४ उ.; गो. जी. २३८ ) । जिसके द्वारा मुनि सूक्ष्म तत्त्व के विषय में सन्देह होने पर केवली के पास जाकर उसका निर्णय करते हैं उसे प्रहारक योग कहते हैं । श्राहारकवर्गणा- - तदनन्तरं ( वैक्रियवर्गणानन्तरं ) द्रव्यतो वृद्धानां परिणामं त्वाश्रित्य सूक्ष्मतराणामेकोत्तर वृद्धिमतामेव स्कन्धानां समुदायरूपा आहारकशरीरनिष्पत्तिहेतुभूता अनन्ता आहारकवर्गणाः । ( शतक. मल. हेम. वृ. ८७-८८, पृ.१०४) । वैक्रियिकवर्गणा के अनन्तर द्रव्य की अपेक्षा वृद्धि को प्राप्त, परन्तु परिणाम के श्राश्रय से प्रत्यन्त सूक्ष्म, एकोत्तर वृद्धियुक्त स्कन्धों के समुदाय रूप होकर श्राहारकशरीर की निष्पत्ति की कारणभूत श्रनन्त वर्गणायें श्राहारकवर्गणा कहलाती हैं । श्राहारकशरीरनाम - यदुदयादाहारवर्गणा पुद्गलस्कन्धाः सर्वशुभावयवाहारशरीरस्वरूपेण परिणमन्ति तदाहारकशरीरं नामकर्म । ( मूला. वृ. १२ - १६३) । जिस कर्म के उदय से श्राहारवर्गणा के पुद्गल स्कन्ध समस्त शुभ श्रवयवों वाले श्राहारकशरीररूप से परिणत होते हैं उसे श्राहारकशरीर नामकर्म कहते हैं ।
श्राहारकशरीरबन्धननाम - देखो प्रहारक आहारकबन्घन और आहारकबन्धन । पूर्वगृहीतैराहारकशरीरपुद्गलैः सह परस्परं गृह्यमाणान् आहारकपुद्गलान् उदितेन येन कर्मणा बध्नाति आत्माऽयोऽन्यसंयुक्तान् करोति तद् जतुसममाहारकशरीरबन्धननाम | ( कर्मवि. दे. स्व. वृ. ३४, पृ. ४६ ) । जिस कर्म के उदय से पूर्व गृहीत श्राहारकशरीर के पुद्गलों के साथ वर्तमान में गृह्यमाण आहारकशरीर के पुद्गल परस्पर में मिलकर एकरूपता को प्राप्त हों उसे श्राहारकशरीरबन्धन नामकर्म कहते हैं । श्राहारकशरीराङ्गोपाङ्ग – देखो श्राहारकाङ्गोपाङ्ग । जस्स कम्मस्स उदएण आहारसरीरस्स अङ्गोवङ्ग-पच्चंगाणि उप्पज्जति तं श्राहारयसरीरंगोवंगं णाम । (धव. पु. ६, पृ. ७३) । जिस कर्म के उदय से श्राहारक शरीर के अंग, उपांग
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