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जैन-लक्षणावली
प्राप्त होता है जो शरीर के विषय में निरपेक्ष होकर निर्द्वन्द (निराकुल), निर्मम (निःस्पृह) और प्रारम्भ से रहित होता हुआ अात्मस्वभाव में निरत हो चुका है। जो स्त्री-पुत्रादि व धन-गृह आदि चेतनअचेतन पर द्रव्यों में प्रासक्त रहता है वह अनेक प्रकार के कर्मों से सम्बद्ध होता है और जो उक्त पर द्रव्यों से बिरक्त (पराङ्मुख) होता है वह उन कर्मों के बन्धन से छूटता है; यही संक्षेप में बन्ध और मोक्ष का उपदेश है। इसे कुछ और स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जो श्रमण स्व द्रव्य-परद्रव्यनिरपेक्ष शुद्ध प्रात्मस्वरूपमें रत है वह सम्यग्दृष्टि है व सम्यक्त्व से परिणत होकर पाठ कर्मों का क्षय करता है तथा जो साधु प्रात्मद्रव्य से अनभिज्ञ होकर परद्रव्य में निरत होता है वह मिथ्यादष्टि है और मिथ्यात्व से परिणत होकर उक्त पाठ कर्मों से बंधता है।
यहां यह आशंका हो सकती है कि जो शुद्ध आत्मद्रव्य में रत न होकर अहंदादि पंच गुरुओं की भक्ति करता है, व्रतों का परिपालन करता है, और तप का आचरण करता है; उसका यह सब पुण्य कार्य क्या निरर्थक रहेगा? इसके उत्तरस्वरूप यहां (गा. २५) यह कहा गया है कि पाप कार्यों से जो नरकगति का दुःख प्राप्त होने वाला है उसकी अपेक्षा उक्त शुभ कार्यों से यदि स्वर्गीय सुख प्राप्त होता है तो वह कहीं उत्तम है--स्तुत्य है। उदाहरणार्थ--जो व्यक्ति तीव्र धप में स्थित होकर किसी प्रात्मीय जन की प्रतीक्षा कर रहा है, उसकी अपेक्षा जो किसी वृक्ष की शीतल छाया में बैठ कर उसकी प्रतीक्षा कर रहा है वह सराहनीय है।
आगे ज्ञान, दर्शन और चारित्र का स्वरूप प्रगट करते हुए यह बतलाया है कि जो जानता है वह ज्ञान, जो देखता है वह दर्शन, और जो पुण्य व पाप दोनों का ही परित्याग है वह चारित्र है । प्रकारान्तर से तत्त्वरुचि को सम्यक्त्व, तत्त्वग्रहण को सम्यग्ज्ञान और परिहार-परित्याग या उपेक्षा-को चारित्र कहा गया है। इस प्रकार यहाँ मोक्ष के उपायभूत सम्यग्दर्शनादि का विवेचन करते हुए परद्रव्य की ओर से विमुख होकर स्वद्रव्य में निरत होने का उपदेश विविध प्रकार से दिया गया है। ___ आगे (८६) श्रावक को लक्ष्य करके कहा गया है कि जो निर्मल सम्यक्त्व मेरु पर्वत के समान स्थिर है उसका दुःखविनाशार्थ ध्यान करना चाहिए। जो जीव सम्यक्त्व का ध्यान करता है वह सम्यग्दृष्टि है और वह पाठ कर्मों का क्षय करता है। यहां उस सम्यक्त्व का स्वरूप यह बतलाया है कि हिंसारहित धर्म, अठारह दोषों से रहित देव और निर्ग्रन्थ प्रावचन-परिग्रहरहित होकर पागम के आश्रित गुरू; इन तीनों पर श्रद्धा रखना, इसका नाम सम्यक्त्व है। जो कुत्सित देव, कुत्सित धर्म और कुत्सितलिंग (कुलिंगी साधु) को लज्जा, भय, अथवा महत्त्व के कारण नमस्कार करता है वह मिथ्यादृष्टि है। सम्यग्दृष्टि श्रावक जिनोपदिष्ट धर्म का ही प्राचरण करता है, यदि वह उससे विपरीत प्राचरण करता है तो उसे मिथ्यादृ ष्टि समझना चाहिए ।
जो साधु मूलगुण को नष्ट कर बाह्य कर्म को-मंत्र-तंत्रादि क्रियाकाण्ड को-करता है वह जिनलिंग का विराधक होने से मोक्षसुख को कभी प्राप्त नहीं कर सकता । कारण यह कि अात्मस्वभाव के विपरीत बाह्य कर्म, बहुत प्रकार का क्षमण--उपवासादि, और पाताप-प्रातापनादि योग; यह सब क्या कर सकता है ? कुछ नहीं । अन्त में कहा गया है कि अरिहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधू ये पांच परमेष्ठा तथा सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान, सम्यक चारित्र और समीचीन तप ये चार भी चंकि आत्मा में स्थित हैं। अतएव आत्मा ही मुझे शरण है।
प्राचार्य पूज्यपाद ने इसकी अनेक गाथाओं को छायानुवाद के रूप में अपने समाधितंत्र और इष्टोपदेश में स्वीकार किया है । इसका प्रकाशन भी श्रतसागर सूरि विरचित टीका के साथ उक्त संस्था १. वरं व्रतैः पदं देवं नाव्रतर्बत नारकम् । छायातपस्थयोर्भेदः प्रतिपालयतोमहान् ।। इप्टोपदेश ३.
इन गाथाओं का समाधितंत्र के इन इलोकों से मिलान कीजिएमो. प्रा.-४, ६, १०, २६, ३१. समाधि-४,१०,११,१८, ७८ इत्यादि
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