________________
अवस्थित ज्योतिष्क |
राशि को अवथित गुणकार या प्रतिगुणकार कहा जाता है ।
१४१,
जैन - लक्षणावली
Jain Education International
अवस्थित ( ज्योतिष्क ) -- ग्रवस्थिता इत्यविचारिणोऽवस्थित विमानप्रदेशा अवस्थितलेश्या प्रकाशा इत्यर्थः । सुखशीतोष्णरश्मयश्चेति । ( त. भा. ४, १६) ।
ढाई द्वीप के बाहिर स्थित सूर्य-चन्द्रादि ज्योतिषी देव चूंकि संचार से रहित हैं, श्रतएव वे अवस्थित कहे जाते हैं । उनके विमानों प्रदेश, वर्ण और प्रकाश भी स्थिर हैं । उक्त विमान सुखकर शीत व उष्ण किरणों से संयुक्त हैं ।
अवस्थित ( द्रव्य ) - १. इयत्ताव्यभिचारादवस्थितानि । धर्मादीनि षडपि द्रव्याणि कदाचिदपि षडिति इयत्त्वं नातिवर्तन्ते, ततोऽवस्थितानीत्युच्यन्ते । ( स. सि. ५ - ४ ) । २. इयत्तानतिवृत्तेरवस्थितानि । धर्मादीनि षडपि द्रव्याणि कदाचिदपि षडिति इयत्त्वं नातिवर्तन्ते ततोऽवस्थितानीत्युच्यन्ते । अथवा, धर्माधर्म-लोकाकाशैकजीवानां तुल्यासंख्येयप्रदेशत्वम्, अलोकाकाशस्य पुद्गलानां चानन्तप्रदेशत्वमित्येतदियत्त्वम् तस्यानतिवृत्तेः श्रवस्थितानीति व्यपदिइयन्ते । (त. वा. ५, ४, ३) । ३. इयत्तां नातिवर्त्तन्ते यतः षडिति जातुचित् । अवस्थितत्वमेतेषां कथयन्ति ततो जनाः ।। (त. सा. ३ - १५) | २ धर्मादिक छहों द्रव्य चूंकि कभी भी 'छह' इतनी संख्या का अतिक्रमण नहीं करते - सदा छह ही रहते हैं, होनाधिक नहीं; इसलिये वे अवस्थित कहे जाते हैं । अथवा धर्म, अधर्म, लोकाकाश और एक जीव; ये समानरूप से असंख्यातप्रदेशी हैं तथा लोकाकाश और पुद्गल अनन्तप्रदेशी हैं, यह जो उनके प्रदेशों का नियत प्रमाण है उसका चूंकि वे द्रव्य कभी अतिक्रमण नहीं करते हैं; इसलिये वे अवस्थित कहे जाते हैं । अवस्थितबन्ध - - यत्र तु प्रथमसमये एकविधादिबन्धको भूत्वा द्वितीयसमयादिष्वपि तावन्मात्रमेव नाति सोऽवस्थितबन्धः । ( शतक. दे. स्वो. वृ. २२) ।
प्रथम समय में एकविध आदि जैसा बन्ध हो रहा था, द्वितीयादि समयों में भी यदि उतना ही बन्ध होता है तो वह अवस्थित बन्ध कहलाता है । अवस्थितविभक्तिक- १. श्रीसक्काविदे [ उस्स
[अवाय, अपाय
क्काविदेवा ] तत्तिया चेव विहत्तीओ एसो अवद्विदविहत्तियो । ( कसायपा. चू. २३४, पृ. १२३; जयध. पु. ४, पृ. २) । २. प्रसक्काविदे उस्सक्काविदे वा जदि तत्तिया तत्तियाश्रो चेव द्विदिबंधवसेण द्विदिविहत्ती होंति तो एसो श्रवद्विदवित्तिश्रो णाम । ( जयध. ४, पृ. २-३ ) । अपकर्षण करने पर यदि उतनी ही स्थितिविभक्तियां रहती हैं तो यह जीव अवस्थितविभक्तिक कहलाता है । अवस्थित संक्रम —जदि तत्तियो तत्तियो चेव दो विसमएस फयाणं संकमो होदि तो एसो प्रवट्टिदसंकमो । ( धव. पु. १६, पृ. ३६८ ) । यदि अनन्तर अतीत और वर्तमान दोनों ही समयों में उतना उतना मात्र ही स्पर्धकों का संक्रमण होता है तो इसे अवस्थित संक्रम जानना चाहिये । अवात्सल्य --- साधर्मिकस्य संघस्य पीडितस्य कुतश्चन । न कुर्याद् यत्समाधानं तदवात्सल्यमीरितम् । धर्मसं. श्री. ४ - ५१ ) ।
किसी भी कारण से पीड़ित साधर्मी जनके संघ का समाधान नहीं करना, इसे श्रवात्सल्य कहते हैं । अवान्तरसत्ता - १. अन्या तु प्रतिनियतवस्तुवर्तिनी स्वरूपास्तित्वसूचिकाऽवान्तरसत्ता । ( पञ्चा. का. अमृत वृ. ८) । २. प्रतिनियतवस्तुव्यापिनी ह्यवान्त रसत्ता, प्रतिनियतैकपर्यायव्यापिनी ह्यवान्तरसत्ता । (नि. सा. वृ. ३४ ) । ३. अपि चावान्तरसत्ता सद्द्रव्यं सन् गुणश्च पर्यायः । संश्चोत्पादध्वंसौ सदिति धौव्यं किलेति विस्तार : || (पञ्चाध्यायी १ - २६६) ।
१. जो प्रतिनियत वस्तु में व्याप्त रहकर अपने स्वरूप के अस्तित्व की सूचना देती है उसे प्रवातरसत्ता कहते हैं ।
श्रवाय, पाय - १. अवायो, ववसाओ, बुद्धी, विणाणी [विण्णत्ती], आउंडी, पञ्चाउंडी । ( षट्खं. ५, ५, ३६ – पु. १३, पृ. २४३ ) । २. विशेषनिर्ज्ञानाद्याथात्म्यावगमनमवायः । ( स. सि. १, १५ ) । ३. ववसायं च अवायं X XX ॥ (श्राव. नि. ३; विशेषा. १७८ ) । ४. तस्सावगमोऽवाओ । ( विशेषा. १७९ ) । ५. अवगमणमवाओ त्तिय प्रत्थावगमो तयं हवइ सव्वं । ( विशेषा. गा. ४०१) । ६. अवायो निश्चयः ॥ ( लघीय १-५); ईहित विशेषनिर्णयोऽवायः । ( लघीय. स्वो वृ.
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org