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अवस्तोभन १४०, जैन-लक्षणाबली
[अवस्थितगुणकार अवसंज्ञासंज्ञा कहते हैं।
पु. ६, पृ. ८९)। २. दीक्षोपवासं कृत्वा पारणाअवस्तोभन-अवस्तोभनम् अनिष्टोपशान्तये निष्ठी- नन्तरमेकान्तरेण चरतां केनापि निमित्तेन षष्ठोपवनेन थुथुकरणम् । (बहत्क. व. १३०९)।
वासे जाते तेन विहरतामष्टमोपवायसंभवे तेनाचरअनिष्ट की उपशान्ति के लिये थूक करके थू-थू करने तामेवं दश-द्वादशादिक्रमेणाधो न निवर्तमानानां यावको अवस्तोभन कहते हैं।
ज्जीव येषां विहरणं तेऽवस्थितोग्रतपसः । (चा. सा. अवस्थान-पुविल्लट्ठिदिसंतसमाणट्ठिदीणं बंधण- पृ. ६८)। मवट्ठाणं णाम । (जयध. ४, पृ. १४१)।
१दीक्षा के लिये एक उपवास करके पश्चात् पारणा पूर्व के स्थितिसत्त्व के समान स्थितियों के बंधने का करता है, तत्पश्चात् एक दिन के अन्तर से उपवास नाम अवस्थान है।
करता हा किसी निमित्त से एक उपवास के स्थान अवस्थित-१. इतरोऽवधि: सम्यग्दर्शनादिगुणाव- पर षष्ठोपवास (दो उपवास) करने लगता है। स्थानाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्तत्परिमाण एवाऽवतिष्ठते, फिर दो उपवासों से विहार करता हुया षष्ठोपवास न हीयते नापि वर्धते लिङ्गवत् ग्रा भवक्षयादा केवल- के स्थान में अष्टमोपवास करने लगता है। इस ज्ञानोत्पत्तेर्वा । (स. सि. १-२२; त. वा. १, २२, प्रकार दशम और द्वादशम श्रादि के क्रम से जो ४; त. सूखबो. १-२२; त. वृत्ति श्रुत. १-२२)। जीवन पर्यन्त इन उपवासों को बढ़ाता ही जाता है, २. अवस्थितं यावति क्षेत्रे उत्पन्नं भवति ततो न पीछे नहीं हटता है, वह अवस्थित-उग्रतप का धारक प्रतिपतत्या केवलप्राप्तेः, अवतिष्ठते आ भवक्षयाद्वा होता है। जात्यन्तरस्थायि भवति लिङ्गवत् । (त. भा. १-२३)।
अवस्थित-उदय-तत्तिये तत्तिये चेव पदेसग्गे उद३. जं प्रोहिणाणं उप्पज्जिय वड्ढि-हाणीहिं विणा
यमागदे अवट्ठिद-उदो णाम । (धव. पु. १५, पृ. दिणयरमंडलं व अवट्ठिदं होदूण अच्छदि जाव केवल
३२५)। णाणमुप्पण्णं ति तं अवट्ठिदं णाम । (धव. पु. १३,
अनन्तर अतीत और वर्तमान दोनों ही समयों में प. २६४)। ४. अवस्थितोऽवधिः शुद्धरवस्थानान्नि
यदि उतने ही प्रदेशाग्र का उदय होता है तो वह यम्यते । सर्वोऽङ्गिनां विरोधस्याप्यभावन्नानवस्थितेः ।।
अवस्थित-उदय कहलाता है। (त. श्लो. १, २२, १५)। ५. अवस्थितमिति---प्रव
अवस्थित-उदीरणा-दोसु वि समएसु तत्तिया तिष्ठते स्म अवस्थितम्, यया मात्रया उत्पन्नं तां मात्रां
चेव पयडीयो उदीरेंतस्स अवट्टिद-उदीरणा। (धव. न जहातीति यावत् । (त. भा. सिद्ध. व. १-२३)। ६. अवस्थितं यन्न प्रतिपतति आदित्यमण्डलवत् ।
पु. १५, पृ. ५०)।
अनन्तर अतीत और वर्तमान दोनों ही समयों में (कर्मस्तव गो. वृ. ९-१०)। ७. यद्धानि-वृद्धिभ्यां
यदि उतनी ही प्रकृतियों की उदारणा को जाती है विना सूर्यमण्डलवदेकप्रकारमेव अवतिष्ठते तदवस्थितम् । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. ३७२) ।
तो दह अवस्थित-उदीरणा कहलाती है। १ जो अवधिज्ञान सम्यग्दर्शनादि गुणों के अवस्थान अवस्थित गुरगकार-XXXजं खेत्तोवमप्रगसे जिस परिमाण में उत्पन्न हया है उससे भव के णिजीवपमाणं होदि एसो परमोहीए दव-खेत्त-कालअन्त तक या केवलज्ञान की प्राप्ति होने तक न भावाणं सलागरासि त्ति पुध वेदब्बो । पुणो दो घटता है और न बढ़ता है, किन्तु उतने ही प्रमाण प्रावलियाए असखेज्जदिभागा समसंखा, ते वि पुध टूवे. रहता है उसे अवस्थित अवधि कहते हैं।
दव्वा । तत्थ दाहिणपासट्ठियस्स पडिगुणगा' रो अवट्टिदअवस्थित उग्रतप (अवटिदुग्गतव)-१. तत्थ गुणगारो त्ति दोण्णि णामाणि। (धव. पृ. ६, पृ. ४५)। दिक्खट्र मे गोववासं काऊण पारिय पूणो एक्कहंतरेण क्षेत्रोपम अग्नि जीवों के प्रमाण को परमावधि के गच्छंतस्स किंचिणिमित्तेण छट्ठोववासो जादो, पुणो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की शलाका राशि मानतेण छट्ठोववासेण विहरंतस्स अट्ठमोववासो जादो। कर उसे अलग रखना चाहिये । पश्चात् समान संख्या एवं दसम-दुवालसादिक्कमेण हेढा ण पदंतो जाव वाले प्रावली के दो प्रसंख्यात भागों को भी अलग जीविदंत जो विहरदि अवठिदुग्गतवो णाम । (धव. रखना चाहिये। इनमें दाहिने पाश्र्व भाग में स्थित
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