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प्रस्तावना
२६
- राजा प्रदेशी - का वर्णन करते हुए जीव व शरीर को एक मानने वाले राजा के पूर्वोक्त प्रश्नों और उनके समाधान आदि को प्रगट किया गया है। प्रश्न करते हुए गौतम गणचर के वर्णन प्रसंग में प्रा. मलयगिरि ने पाठान्तर की सूचना भी की है । यथा - पुस्तकान्तरे त्विदं वाचनान्तरं दृश्यते - तेण कालेणं तेण समएणं...... सू. २६, पृ. ११८. इसका एक संस्करण, जो हमारे पास है, खडयाता ( Khada - yata) बुक डिपो अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ है। इसकी टीका का उपयोग अति स्निग्धमधुरत्व, अनुनादित्व अपरममवेधित्व, अभिजातत्व, असंदिग्धत्व और उपनीतरागत्व आदि शब्दों में हुआ है । ३५. जीवाजीवाभिगम - यह तीसरा उपांग है । इसके ऊपर भी प्रा. मलयगिरि विरचित विस्तृत टीका है । टीकाकार ने प्रस्तुत उपांग का सम्बन्ध तीसरे स्थानांग से बतलाया है। इसमें नौ प्रतिपत्ति या प्रकरण हैं । सूत्रसंख्या २७२ है । मूल ग्रन्थ का प्रमाण ४७५० और टीका का प्रमाण १४००० है | जैसा कि ग्रन्थ के नाम से प्रकट है, इसमें गौतम गणधर के प्रश्न और भगवान् महावीर के उत्तररूप में जीव व अजीव के भेद-प्रभेदों की विस्तार से चर्चा की गई है । साथ ही यथाप्रसंग अन्य भी अनेक विषय उसमें समाविष्ट हैं । जैसे - रत्न - शर्कराप्रभादि पृथिवियां, द्वीप समुद्र, विजयद्वार, रत्नभेद, शस्त्रभेद, धातुभेद, मद्यभेद, पात्रभेद एवं आभूषणभेद आदि । उक्त प्रतिपत्तियों में तीसरी प्रतिपत्ति अत्यधिक विस्तृत है ( सूत्र ६५-२२३, पृ. ८८-४०७ ) । विवक्षित प्रतिपत्ति के प्राद्य सूत्र में जितने जीवभेदों का निर्देश किया गया है तदनुसार प्रतिपत्ति की संज्ञा की गई प्रतीत होती है । जैसे त्रिविधा नाम की द्वितीय पतिपत्ति में जीव के स्त्री, पुरुष और नपुसंक इन तीन प्रकारों की प्ररूपणा की गई है । चतुविधा नाम की तृतीय प्रतिपत्ति में जीव के नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चार भेदों की, पंचविधा नाम की चतुर्थ प्रतिपत्ति में जीव के एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय श्रादि पांच भेदों की; इस क्रम से अन्तिम दशविधा नाम की नौवीं प्रतिपत्ति में जीव के इन दस प्रकारों की प्ररूपणा की गई है - प्रथमसमय एकेन्द्रिय, प्रथम-समय-एकेन्द्रिय, प्रथम-समय- द्वीन्द्रिय, श्रप्रथम समय द्वीन्द्रिय आदि ।
इसका एक संस्करण मलयगिरि विरचित वृत्ति के साथ सेठ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड वम्बई से प्रकाशित हुआ है । इसकी टीका का उपयोग श्रग्निकुमार, श्रद्धासमय, अधर्मद्रव्य, अनाहारक, उच्छ्वास और उच्छ्वासपर्याप्ति श्रादि शब्दों में हुआ है ।
३६. प्रज्ञापनासूत्र - यह श्यामार्य वाचक विरचित चोथा उपांग है | श्यामार्य का अस्तित्व महावीर निर्वाण के ३७६ वर्ष पश्चात् बतलाया जाता है'। इसके ऊपर भी पूर्वोक्त प्रा. मलयगिरि के द्वारा टीका रची गई है । यहाँ मंगल के पश्चात् "वायगवरवं साम्रो" आदि दो गाथायें प्राप्त होती हैं । उनकी व्याख्या करते हुए मलयगिरि ने उन्हें अन्यकर्तृक वतलाया है । इन गाथाओं में श्रुत सागर से चुनकर उत्तम श्रुत-रत्न के प्रदाता आर्य श्याम को नमस्कार करते हुए उन्हें वाचक वंश में तेईसवें निर्दिष्ट किया गया हैं । साथ ही 'पूर्वश्रुतसमृद्धबुद्धि' इस विशेषण द्वारा उनके महत्व को प्रगट किया गया है । मलयगिरि ने प्रस्तुत ग्रन्थ को चौथे समयायांग में प्ररूपित विषय का प्रतिपादक होने से उसका उपांग सूचित किया है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ में निम्न ३६ पद हैं, जिनकी वहाँ क्रम से प्रश्नोत्तर के रूप में प्ररूपणा की गई है— १ प्रज्ञापना, २ स्थान, ३ बहुवक्तव्य, ४ स्थिति, ५ विशेष, ६ व्युत्क्रान्ति, ७ उच्छ्वास, ८ संज्ञा, ६ योनि, १० चरम, ११ भाषा, १२ शरीर, १३ परिणाम, १४ कषाय, १५ इन्द्रिय, १६ प्रयोग, १७ लेश्या, १८ कार्यस्थिति, १६ सम्यक्त्व, २० अन्तक्रिया, २१ अवगाहनासंस्थान, २२ क्रिया, २३ कर्म, २४ कर्म१. 'जैन साहित्य का वृहद् इतिहास' भाग २, पृ. ८३.
२. येनेयं सत्त्वानुग्रहाय श्रुत- सागरादुद्धृता प्रसाबप्यासन्नतरोपकारित्वादस्मद्विघानां नमस्काराहं इति तनमस्कारविषयमिदमपान्तराल एवान्यकतृ के गाथाद्वयम् । पृ. ५/१
३. नन्दीसूत्र में निर्दिष्ट स्थविरावली ( २२-४२ ) में श्यामार्य का उल्लेख गा. २५ में उपलब्ध होता है ।
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