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जन-लक्षणावली षट्खण्डागम में जिन दो गाथासूत्रों के द्वारा गुणश्रेणिनिर्जरा की प्ररूपणा की गई है वे दो गाथायें प्रस्तुत कर्मप्रकृति और प्राचारांग नियुक्ति में भी उपलब्ध होती है।
उक्त गुणश्रेणिनिर्जरा का निरूपण इसी प्रकार से तत्त्वार्थसूत्र में भी किया गया है।
इसके ऊपर अज्ञातकर्तृक' चूणि है, जो विक्रम की १२वीं शताब्दी के पूर्व रची गई है। इसके अतिरिक्त एक टीका प्रा. मलयगिरि द्वारा विरचित और दूसरी टीका उपाध्याय यशोविजय (विक्रम की १८वीं शताब्दी) विरचित भी है । उक्त चूणि और दोनों टीकाओं के साथ उसे मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर डभोइ (गुजरात) द्वारा प्रकाशित कराया गया है । मात्र मूल ग्रन्थ पंचाशक आदि अन्य कुछ ग्रन्थों के साथ ऋषभदेव जी केशरीमलजी श्वे. संस्था रतलाम से भी प्रकाशित हुआ है । इसका उपयोग इन शब्दों में हुअा है
मूल-प्रधःप्रवृत्तसंक्रम, अपवर्तना और उदीरणा आदि । चूणि-प्रकरणोपशामना, अधःप्रवृत्तसंक्रम, अनभिसंधिजवीर्य, अपवर्तना और अविभागप्रतिच्छेद
आदि । म. टीका-अधःप्रवृत्तसंकम और अपवर्तना प्रादि । उ. य. टीका-अनादेय और अपवर्तना ग्रादि ।
५२. शतकप्रकरण-इसे बन्धशतक भी कहा जाता है । यह पूर्वोक्त कर्मप्रकृति के कर्ता शिवशर्म सूरि की कृति मानी जाती है। इसमें मूल गाथायें १०६ हैं। ये गाथायें अर्थगम्भीर हैं । उनके अभिप्राय को स्पष्ट करने के लिये चक्रेश्वर सूरि के द्वारा बृहद् भाष्य सिखा गया है। इन भाष्य गाथानों का श्लोकप्रमाण १४१३ हैं। चक्रेश्वर सूरि द्वारा रचित यह भाष्य, जैसा कि उन्होंने अन्त में निर्देश किया है, अन्नलदेव नृपति के राज्य में वर्तमान गोल्ल विषय विशेषण (?) नगर में वि. सं. ११६७ में कार्तिक चातुर्मास दिन में पूर्ण हुआ है। ये श्री वर्धमान गणधर के शिष्य और गुणहर गुणधर के गुरु थे । इन गुणधर शिष्य की प्रेरणा से ही यह भाष्य रचा गया है। इस बृहद् भाष्य के अतिरिक्त एक २४ गाथात्मक
सम्मत्तप्पत्ती वि य सावय-विरदे अणंतकम्मंसे । दंसणमोहक्खवए कसायउवसामए य उवंसते ।। खवए य खीणमोहे जिणे य णियमा भवे असंखेज्जा। तबिवरीदो कालो संखेज्जगुणाए सेढीए॥षट्खं. पु. १२, पृ. ८८. सम्मत्तुप्पत्तिसावयविरए संजोयणाविणासे य । दसणमोहक्खवगे कसायउवसामगुवसंते ।। खवगे य खीणमोहे जिणे य दुविहे असंखगुणसेढी ।। उदो तब्विवरीयो कालो संखेज्जगुणसेढी ।कर्मप्र. ६, ८-६. सम्मत्तुप्पत्ती सावए य विरए अणंतकम्मंसे । दंसणमोहक्खवर उवसामंते य उवसते ॥ खवए य खीणमोहे जिणे य सेढी भवे असंखिज्जा ।
तविवरीमो कालो संखिज्जगुणाइ सेढीए ॥ आचारांग नि. २२२-२३, पृ. १६०, २. त. सू. (दि.) ६-४५, श्वे. ६-४७ ३. 'जैन साहित्य का वहद इतिहास' में इसके जिनदास गणि महत्तर के द्वारा रचे जाने की सम्भावना
की गई है। भा. ४, पृ. १२१ ४. 'जैन साहित्य का वृहद इतिहास' भाग ४, पृ. १२७ पर वि. सं. ११७६ लिया गया है।
सिरिबद्धमाण-गणहर-सीसेहि विहारुगेहि सुहबोहं। एवं सिरिचक्केसरसूरीहिं सयग्गगुरुभासं ॥ गुणहर-गणधरणामगणिययविणेयस्स वयणपो रइयं ।
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