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प्रस्तावना
६५०-६० के आस पास का विद्वान मानते हैं। इसके ऊपर जिनभद्र स्वयं टीका के लिखने में प्रवृत्त हए । पर बीच में ही दिवंगत हो जाने के कारण वे छठे गणधरवाद तक ही टीका लिख सके व स्वयं उसे पूरा नहीं कर सके । शेष भाग की टीका कोटयार्य द्वारा की गई है। इसका एक संस्करण जो हमारे पाप है, कोट्याचार्य विरचित टीका के साथ ऋषभदेव जी केशरीमल जी श्वे. संस्था रतलाम द्वारा दो भागों में प्रकाशित किया गया है। इसके अनुसार गाथाओं की संख्या ४३४६ है। इसमें सम्भवत: बहतसी नियुक्ति गाथानों का मिश्रण हो गया है। इसका उपयोग इन शब्दों में हुअा है
मूल-अध्ययन, अनुगामी अवधि, अनुयोग, अभिनिबोध, अवाय, प्रागमद्रव्यमंगल, प्राभिनिबोधिक, इत्वरसामायिक, उपकरण, उपक्रम, उपयोग और ऋजुगति आदि ।
टीका-इत्वरसामायिक (स्वो.) और ईहा (को.) आदि ।
५१. कर्मप्रकति-यह शिवशर्म सूरि द्वारा विरचित एक म त्त्वपूर्ण कर्मग्रन्थ है। शिवशर्म सूरि का समय सम्भवत: विक्रम की पांचवी शताब्दी है । इसकी गाथासंख्या ४७५ है। इसमें बन्धन, संक्रमण, उद्वर्तना, अपवर्तना, उदीरणा, उपशामना, निधत्ति और निकाचना ये आठ करण हैं । इनमें यथायोग्य ज्ञानाबरणादि पाठ कर्मों के बन्ध, परप्रकृतिपरिणमन, उत्कर्षण, अपकर्षण और उदीरणा (परिणाम के वश स्थिति को कम कर उदय में देना), करणोपशामना व प्रकरणोपशामना आदि अनेक भेदरूप उपशामना, नित्ति और निकाचना, इनका निरूपण किया गया है। नित्ति और निकाचना में विशेषता यह है कि निधत्ति में संक्रमण और उदीरणा नहीं होती, किन्तु उत्कर्षण-अपकर्षण उसमें सम्भव हैं। पर निकाचना में संक्रमणादि चारों ही नहीं होते । अन्त में उदय और सत्ता का भी कुछ वर्णन किया गया है।
प्रस्तुत कर्मप्रकृति एक गाथाबद्ध संक्षिप्त रचना है और पूर्व निर्दिष्टषट्खण्डागम अधिकांश गद्यसत्रमय है-गाथासूत्र यत्र क्वचित् ही पाये जाते हैं । इन दोनों की विषयप्ररूपणा में कहीं कहीं समानता देखी जाती है । जैसे
कर्मप्रकृति में प्रदेशसंक्रमण की प्ररूपणा करते हए ज्ञानावरणादि के उत्कृष्ट प्रदेश का स्वामी गणितकर्माशिक को बतलाया है। वह किन किन अवस्थाओं में कितने काल रहकर उस उत्कृष्ट प्रदेश का स्वामी होता है, इसका यहाँ संक्षेप में निरूपण किया गया है।
यही प्ररूपणा षट्खण्डागम में कुछ विस्तार से की गई है। दोनों में अर्थसाम्य तो प्रायः है ही, शब्दसाम्य भी कुछ है ।
अागे कर्मप्रकति में उक्त कर्मों के जघन्य प्रदेश के स्वामी क्षपितकर्माशिककी प्ररूपणा करते हए वह कब और किस प्रकार से उस जघन्य प्रदेश का स्वामी होता है, इसका संक्षेप से निर्देश किया गया गया है । यही प्ररूपणा षटखण्डागम में ज्ञानावरणीय कर्म की जघन्य द्रव्यवेदना के स्वामी उसी क्षपितकर्माशिक के प्रसंग में कुछ विस्तार से की गई है।
षदखण्डागम में स्थितिबन्ध के अल्पबहत्व की प्ररूपणा की गई है । वही प्ररूपणा कर्मप्रकृति में चुणि कार के द्वारा की गई है, जो प्रायः शब्दशः समान है। १. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास भाग ३, पृ. १३३-३५.
२. वही पृ. ३५५. ३. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास भाग ४, पृ. ११०. ४. कर्मप्र. संक्रमक. गा. ७४-७८ ५. षट्खं . ४,२,४,६-३२ पु. १०, प. ३१-१०६. ६. कर्मप्र. संक्रमक. ६४-६६ ७. षट्खं. ४,२,४,४८-७५, पु. १०, पृ. २६८-६६ ८. षट्खं. ४,२,६,६५-१००, पु. ११, पृ. २२५.३७
• १, ८०-८२ (पूणि), पृ. १७४-१७५
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