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अनानुपूर्वी] ५८, जैन-लक्षणावली
[अनाभोगनिक्षेप अपने नियत विषय को जानता है, स्वामी के अन्यत्र पंचसं. मलय.व. ४-२ सम्बोध. वृ. ४७, पृ. ३२)। जाने पर वह उसे नहीं जानता। इसका कारण यह २ सभी दर्शन-मत-मतान्तर-अच्छे हैं, इस प्रकार है कि उसके आवारक अवधिज्ञानावरण का क्षयोप- की बुद्धि से सबके समान मानने को अनाभिग्राहिक शम उक्त क्षेत्र के ही सम्बन्ध की अपेक्षा रखकर मिथ्यात्व कहते हैं। उत्पन्न हुमा है। ऐसे अवधिज्ञान को अनानुगामुक प्रनाभोग-१. आमोगो उवयोगो तस्साभावे भवे अवधिज्ञान कहा जाता है।
अणाभोगो । (प्रत्या. स्व. गा.५५)। २. आभोगअनानुपूर्वो-देखो यथातथानुपूर्वी । से किं तं प्रणाणु- नमाभोगः, नाभोगः अनाभोगः, आगमस्यापर्यालोचोपुवी ? एमाए चेव एगाइयाए एगुत्तरिमाए अणंत. ज्ञानमेव श्रेय इति भावः । (पञ्चसं. स्वो. व. गच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णब्भासो दुरूवूणो, से तं ४-२)। ३. अनाभोगः सम्मूढचित्ततया व्यक्तोपअणाणुपूवी । अहवा xxx से कि त अणाणु- योगाभावो दोषाच्छादकत्वात् सांसारिकजन्महेतुपुवी ? एमाए चेव एगाइपाए एगुत्तरिआए असं- त्वाद्वा । (ललितवि. पृ. ३)। ४. अनाभोगोऽजाखिज्जगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्भासो दुरूवूणो, नानस्याकार्यमासेवमानस्य भवति । (प्राव. ह. व. से तं प्रणाणुपुवी। (अनुयोग. सू. ११४)। मल. हेम. टि. पु. ६०)। ५. न विद्यते पाभोगः अनुलोम (प्रथम-द्वितीय प्रादि) और विलोम (अन्त्य परिभावनं यत्र तदनाभोगं तच्चैकेन्द्रियादीनामिति । व उपान्त्य आदि) क्रम से रहित जो किसी की प्रह- (पञ्चसं. मलय. वृ. ४-२)। पणा की जाती है उसका नाम अनानपूर्वी है। १ उपयोग के प्रभाव का नाम अनाभोग (असावउदाहरणार्थ-कालानुपूर्वी के प्राश्रय से समयादि- धानी) है। २ प्रागम का पर्यालोचन न करके रूप अनन्त कालभेदों को प्ररूपणा में अनानुपूर्वी के अज्ञान को ही श्रेयस्कर मानना, इसका नाम अनाविकल्प इस प्रकार होते हैं-एक को प्रादि लेकर भोग मिथ्यात्व है। एक अधिक क्रम से चूंकि कालभेद अनन्त हैं, अतः अनाभोगक्रिया-१. अप्रमृष्टादृष्टभूमौ कायादि१-२-३-४ आदि के क्रम से अन्तिम विकल्प तक निक्षेपोऽनाभोगक्रिया । (स. सि.६-५; त. वा. ६, अंकों को स्थापित करके उन्हें परस्पर गणित करने ५,६; त. सुखबो. ६-५; त. वृ. श्रुत. ६-५)। पर जो राशि उपलब्ध हो उसमें से दो (प्रथम और २. अदृष्टे योऽप्रमृष्टे च स्थाने न्यासो यतेरपि । अन्तिम अंकों के कम कर देने पर जो संख्या प्राप्त कायादेः सा त्वनाभोगक्रियाxxx॥ (त. इलो. हो उतने प्रकृत में अनानपूर्वी के विकल्प होते हैं। ६,५,१६)। ३. अप्रमुष्टाप्रदष्टायां निक्षेप उनमें से वक्ता की इच्छानुसार किसी भी विकल्प क्षितौ । अनाभोगक्रिया सा तु xxx ॥ (ह. पु. को लेकर जो प्ररूपणा की जाती है वह अनानुपूर्वी- ५८-७३)। ४. अनाभोगक्रिया अप्रत्यवेक्षिताप्रमाणिते क्रम से कही जावेगी।
देशे शरीरोपकरणनिक्षेपः। (त.भा. सि. वृ. ६-६)। प्रनाभिग्राहिक मिथ्यात्व-१. अनाभिग्राहिकं तु १ बिना शोधी और बिना देखी भूमि पर सोना व प्राकृतलोकानां सर्वे देवा वन्दनीया न निन्दनीयाः। उठना-बैठना प्रादि शरीर सम्बन्धी क्रिया को प्रनाएवं सर्वे गुरवः, सर्वे धर्मा इति। (योगशा. स्वो. भोग क्रिया कहते हैं। विव. २-३)। २. मन्यतेऽङ्गी दर्शनानि यद्वशाद- अनाभोगनिक्षेप-१. असत्यामपि त्वरायां जीवाः खिलान्यपि । शुभानि माध्यस्थ्यहेतुरनाभिग्राहिक सन्ति न सन्तीति निरूपणमन्तरेण निक्षिप्यमाणं हि तत् । (लोकप्र. ३-६६२) । ३. अनाभिग्राहिकं तदेवोपकरणादिकमनाभोगनिक्षेपाधिकरणम् । (भ. अज्ञानां गोपादीनामीषन्माध्यस्थ्याद्वाऽनभिगृहीत- प्रा. विजयो. टी ८१४; अन. घ. स्वो. टी. ४-२८)। दर्शनविशेषा[णां] सर्वदर्शनानि शोभनानि इत्येवंरूपा २. अनालोकितरूपतया उपकरणादिस्थापनं अनाभोग या प्रतिपत्तिः । (कर्मस्त. गो. व. गा.९-१०)। इत्युच्यते । (त. वृत्ति श्रत. ६-६)। ४. एतद्-(प्राभिग्राहिक.) विपरीतमनाभिग्राहिकम, १शीघ्रता के न होने पर भी जीव-जन्तु के देखे यद्वशात् सर्वाण्यपि दर्शनानि शोभनानि इत्येवमी- बिना ही ज्ञान-संयम के साधनभूत उपकरणादि के षन्माध्यस्थ्यमुपजायते । (षडशी. मलय. वृ. गा. ७५; रखने को अनाभोगनिक्षेप कहते हैं ।
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