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प्रस्तावना
१४ मार्गणा और उपयोग, इन २० प्ररूपणाओं का वर्णन किया गया है। गुणस्थान मिथ्यात्व व सासादन प्रादि के भेद से चौदह हैं। इनकी प्ररूपणा ६६ गाथाओं द्वारा की गई है। जीव अनन्त हैं। उनका बादर व सूक्ष्म प्रादि भेद युक्त जिन एकेन्द्रियत्व आदि धर्मविशेषों के द्वारा संग्रह या संक्षेप किया जाता है उन्हें जीवसमास कहा जाता है। बादर व सूक्ष्म के भेद से एकन्द्रिय दो प्रकार के तथा संज्ञी व असंज्ञी के भेद से पंचेन्द्रिय भी दो प्रकार के हैं । इन चार के साथ द्वीन्द्रिय आदि तीन के ग्रहण करने पर सात होते हैं। ये सातों पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी। इस प्रकार सब भेद चौदह होते हैं। ये ही जीवसमास माने जाते हैं । इन सबकी प्ररूपणा यहाँ ४७ (७०-११६) गाथाओं द्वारा की गई है।
पाहार-शरीर आदि के भेद से पर्याप्तियां छह हैं। पर्याप्ति नामकर्म के उदय से यथायोग्य अपनी अपनी पर्याप्तियों के पूर्ण हो जाने पर जीव पर्याप्त कहलाता है। इन पर्याप्तियों का प्रारम्भ तो एक साथ हो जाता है, पर उनकी पूर्णता क्रम से होती है। जब तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं हो जाती तब तक जीव नित्यपर्याप्त कहलाता है। अपर्याप्त नामकर्म का उदय होने पर अपनी योग्य पर्याप्तियों की पूर्णता तो नहीं हो पाती और अन्तर्मुहुर्त के भीतर ही जीव मरण को प्राप्त हो जाता है। ऐसे जीव अपर्याप्त कहे जाते हैं । इस सबकी प्ररूपणा यहाँ ११ (११७-२७) गाथाओं द्वारा की गई है।
पांच इन्द्रियाँ, मनबल आदि तीन बल, पानपान (श्वासोच्छ्वास) और आयु ये १० प्राण कहलाते हैं । इनका वर्णन यहाँ ५ (१२८-३२) गाथायों में किया गया है।
आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चार संज्ञायें हैं। इनका वर्णन ६ (१३३-३८) गाथाओं में किया गया है।
जिन अवस्थाओं के द्वारा जीवों का मार्गण या अन्वेषण किया जाता है वे मार्गणायें कहलाती हैं। के चौदह हैं, जो इस प्रकार हैं-गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या भव्यत्व. सम्यक्त्व, संज्ञी और पाहार । इन सब का वर्णन यहाँ क्रम से विस्तारपूर्वक किया गया है। यह अधि. कार सबसे विस्तृत है जो ५३२ (१३६-६७०) गाथाओं में पूर्ण हुअा है। इस अधिकार के अन्तर्गत लेश्या मार्गणा की प्ररूपणा निर्देश, वर्ण, परिणाम, संक्रम, कर्म, लक्षण, गति, स्वामी, साधन, संख्या, क्षेत्र स्पर्श, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन १६ अन्तराधिकारों के द्वारा ४८८-५५५ गाथानों में की
वस्तु के जानने-देखने रूप जो जीव का चेतनभाव है वह उपयोग कहलाता है। वह साकार और निराकार के भेद से दो प्रकार का है। साकार उपयोग जहाँ वस्तु को विशेषरूप से ग्रहण करता है वहाँ निराकार उपयोग उसे बिना किसी प्रकार की विशेषता के सामान्यरूप से ही ग्रहण किया करता है। साकार उपयोग ज्ञान और निराकार उपयोग दर्शन माना गया है। अपने भेद-प्रभेदों के साथ इसका वर्णन यहाँ ५ (६७१%७५) गाथामों में किया गया है।
मागे गणस्थान और मार्गणाओं के प्राश्रय से पृथक-पृथक् पूर्वोक्त बीस प्ररूपणामों का यथायोग्य विचार किया गया है (६७६-७०४)। अन्त में गौतम स्थविर को नमस्कार करते हुए गुणस्थान और मार्गणामों में पालाप का दिग्दर्शन कराया गया है । सामान्य, पर्याप्त और अपर्याप्त ये तीन पालाप हैं। अपर्याप्त के दो प्रकार हैं-निर्वृत्त्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त। इनमें से मिथ्यात्व गुणस्थान में ये दोनों ही प्रकार सम्भव हैं। सासादन, असंयतसम्यग्दृष्टि और प्रमत्तविरत इन गुणस्थानों में निवत्यपर्याप्त कीनो सम्भावना है, पर लब्ध्यपर्याप्त की सम्भावना नहीं है। समुद्घात अवस्था में योग की अपेक्षा सयोगवली के भी अपर्याप्तता सम्भव है । इस प्रकार उपयुक्त पांच गुणस्थानों में सामान्य, पर्याप्त और पर्याप्त तीनों पालाप सम्भव है । शेष नौ गुणस्थानों में एक पर्याप्त ही सम्भव है। यही क्रम मार्गणाओं में भी यथासम्भव समझना चाहिए।
कर्मकाण्ड-इसकी गाथा संख्या ६७२ है। इसमें ये नो अधिकार हैं-प्रकृतिसमुत्कीर्तन. बी.
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