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प्रस्तावना
पुस्तकोद्धार फण्ड बम्बई से प्रकाशित हुआ है। इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है
मूल-प्रध्रुवोदय, अनुदयवती प्रकृति, अश्वकर्णकरणाद्धा, उदयवती और उदीरणा प्रादि ।
स्वो. वृ.-अचक्षुदर्शन, अध्रुवसत्कर्म, अध्रुवोदय, अनभिगृहीत मिथ्यात्व, उदयवती और उदयसंक्रमोत्कृष्ट आदि।
__ मलय. वृ.अध्रुवबन्ध, अध्रुवसत्कर्म, अध्रुवोदय, अनुदयवती प्रकृति, उदयवती और उदयसंक्रमोत्कृष्ट आदि।
६४. सप्ततिकाप्रकरण (षष्ठ कर्मग्रन्थ)-यह किसके द्वारा रचा गया है, यह ज्ञात नहीं है। वैसे यह चन्द्रषि महत्तर प्रणीत माना जाता है। प्रात्मानन्द जैन सभा भावनगर से प्रकाशित संस्करण के अनुसार इसमें ७२ गाथायें हैं। यहाँ सर्वप्रथम यह सूचना की गई है कि मैं सिद्धपदों के प्राश्रय से-प्रतिष्ठित पदों से युक्त कर्मप्रकृतिप्राभूतादि प्राचीन ग्रन्थों के प्राधार से अथवा जीवस्थानगुणस्थानरूप सिद्धपदों के आश्रय से-बन्ध, उदय और सत्तारूप प्रकृतिस्थानों के महान् अर्थयुक्त संक्षेप को कहूँगा, जो दृष्टिवाद से निकला है। आगे प्रश्न उठाया गया है कि कितनी प्रकृतियों को बांघता हा जीव कितनी प्रकृतियों का वेदन करता है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि मूल और उत्तर प्रकृतियों में इससे सम्बद्ध भंगों के अनेक विकल्प हैं। आगे मूल प्रकृतियों के आश्रय से इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि मूल प्रकृतियों के बन्धक चार प्रकार के हैं-पाठ के बन्धक, सात के बन्धक, छह के बन्धक
और एक के बन्धक । मिथ्यादृष्टि से लेकर अप्रमत्त गुणस्थान तक प्रायु के बन्धकाल में पाठ के बन्धक हैं । इनके पाठ का बन्ध, पाठ का उदय और सत्ता भी पाठों की है।
आयुबन्ध के बिना सात के बन्धक मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिबादरसाम्पराय तक है। इनके सात का बन्ध, पाठ का उदय और पाठों की सत्ता रहती है।
सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती प्रायु और मोहनीय के बिना छह के बन्धक हैं । इनके पाठ का उदय और पाठों की सत्ता रहती है।
उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगिकेवली ये एक मात्र वेदनीय के बन्धक हैं। इनमें उपशान्तकषाय के एक का बन्ध, मोहनीय के बिना सात का उदय और सत्ता पाठों की है। क्षीणकषाय के एक का बन्ध, सात का उदय और मोहनीय के बिना सात की ही सत्ता है। सयोगिकेवली के एक का बन्ध, चार (प्रधाती) का उदय और चार की ही सत्ता है।
अयोगिकेवली के बन्ध एक का भी नहीं है, उनके उदय चार का और सत्ता भी चार की है। इसकी दिग्दर्शक तालिका
गुणस्थान
बन्ध
उदय
सत्ता
विशेष
१-७
पायुर्बन्धकाल में
मायुर्बन्ध के बिना
प्रायु व मोहनीय के वन्ध के बिना
(वेदनीय) |(मोहके बिना)।
(मोहके बिना)
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