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जैन - लक्षणावली
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द्वारा होते हैं, ४ कहाँ होते हैं, ५ कितने काल रहते हैं और ६ भाव कितने प्रकार का है ? इन छह प्रश्नों के साथ प्रकृत का विवेचन किया जाता है । अथवा सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्र, स्पर्श, काल, अन्तर, भाव और अल्पवहुत्व इन आठ अनुयोगद्वारों के' आश्रय से विवक्षित जीवसमासों का अनुगम करना चाहिए। उसके पश्चात् गति आदि चौदह मार्गणात्रों और मिथ्यात्व व प्रासादन श्रादि चौदह जीवसमासों ( गुणस्थानों) का नामनिर्देश किया गया है ।
आगे गति प्रादि भेदों में विभक्त जीवों का निरूपण करते हुए उनमें यथायोग्य गुणस्थान और मार्गणा आदि का विचार किया गया है । इस प्रकार सत्पदप्ररूपणा करने के पश्चात् द्रव्यप्रमाण के प्रसंग में द्रव्यादि के भेद से चार प्रकार के प्रमाण का विवेचन किया गया है। इस क्रम से यहां क्षेत्र व स्पर्शन आदि शेष अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की गई है ।
यहाँ पृथिवी आदि के भेदों के प्रसंग में जिन गाथाओं का उपयोग हुआ है वे मूलाचार में भी प्रायः उसी क्रम से उपलब्ध होती हैं । यथाक्रम से दोनों ग्रन्थों की इन गाथाओं का मिलान कीजिएजीवसमास - २७ - २६, ३० (पू.), ३१ (पू.), ३२ (पू.), ३३ (पू.), ३४-३७, ३८-३६
और ४०-४४.
मूलाचार (पंचाचाराधिकार ) - E- ११, १२ (पू.), १३ (पू.), १४ (पू.) १५ (पू.), १६- १६, २१-२२ और २४-२८.
पाठभेद - जीव. गा. ३५ में 'कट्ठा' व मूला. गा. १७ में 'खंघ' पाठ है । जीव. गा. ४० में 'बारस' व मूला. गा. २४ में 'बावीस' पाठ है । जीव. गा. ४३ में मनुष्यों के कुलभेद बारह लाख करोड़ और मूला. गा. २७ में वे चौदह लाख करोड़ निर्दिष्ट किए गए हैं । इसी से उनकी समस्त संख्या में भेद हो गया है । जीव. गा. ४४ में जहाँ वह एक कोड़ाकोड़ि सत्तानबे लाख पचास हजार है वहाँ मूला. गा. २८ में वह एक कोड़ाकोड़ि निन्यानवे लाख पचास हजार हैं ।
प्रस्तुत ग्रन्थ का एक संस्करण जो हमारे पास है, पंचाशक आदि के साथ, मूल रूप में ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था रतलाम से प्रकाशित हुआ है । इसके ऊपर टीका भी लिखी गई है, पर वह हमें उपलब्ध नहीं हो सकी। इसका उपयोग प्रयन, ग्रहोरात्र, श्रात्माङ्गुल, श्रावलि और उच्छ्लक्ष्णलक्षणका आदि शब्दों में हुआ है ।
१. चौदह जीवसमासों की प्ररूपणा षट्खण्डागम में भी इन्हीं ग्राठ अनुयोगद्वारों के आश्रय से की गई है - एदेसि चेव चोदसण्हं जीवसमासाणं परूवणट्ठदाए तत्थ इमाणि श्रट्ट प्रणियोगद्दाराणि णायव्वाणि भवंति ॥ तं जहा ॥ संतपरूवणा दव्वपमाणाणुगमो खेत्ताणुगमो फोसणाणुगमो कालाणुगमो अंतराणुगमो भावानुगमो अप्पा बहुगाणुगमो चेदि ।। षट्खं. १, १, ५-७, पु. १, पृ. १५३-५५
२. मार्गणाभेदों की सूचक यह (६) गाथा बोधप्राभृत (३३), मूलाचार (१२-१५६), पंचसंग्रह (१-५७) और आवश्यक नियुक्ति ( १४ - कुछ शब्दभेद के साथ) श्रादि कितने ही ग्रन्थों में पायी जाती है ।
३. जीवसमास ८- ६; षट्खण्डागम में गुणस्थानों का उल्लेख 'जीवसमास' नाम से ही किया गया है । षट्खं. १, १, २, पु. १, पृ. ६१. ( जीवा समस्यन्ते एष्विति जीवसमासाः । चतुर्दश च ते जीवसमासाश्च चतुर्दशजीवसासाः । तेषां चतुर्दशानां जीवसमासानाम्, चतुर्दशगुणस्थानानामित्यर्थः । धवला पु. १, पृ. १३१)
४. इनमें से कुछ गाथायें पंचसंग्रह (भारतीय ज्ञानपीठ ) - जैसे १, ७७ ८१- में और कुछ गो. जीवकाण्ड (जैसे गा. १८५) में भी उपलब्ध होती हैं । जीवसमास की २७-३० गाथायें कुछ पादव्यत्यय के साथ आचारांग नियुक्ति (७३-७६) में पाई जाती हैं । इसके अतिरिक्त वहाँ कुछ गाथायें प्राय: अर्थतः समान हैं । जैसे – जीव. ३१, ३२, ३४, ३५-३६, ३६ और ३३ तथा प्राचा. नि. १०८, ११८, १३०, १२६, १४१ और १६६.
५. कुल भेदों की यह संख्या गो. जीवकाण्ड (११५-१६) में जीवसमास के अनुसार है ।
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