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अभ्याहृत ]
११६,
हृतपिण्ड: । ( श्राब. ह. वृ. मल. हेम. टि. पू. ८१) । १ स्वकीय ग्राम आदि से साधु के निमित्त लाये हुये श्राहार को श्रभ्याहृत कहते हैं ।
जैन - लक्षणावली
अभ्याहृत ( वसतिका दोषभेद ) – कुडचाद्यर्थं कुटीरक - कटादिकं स्वार्थं निष्पन्नमेव यत्संयतार्थमानीतं तदब्भाहिडम् । (भ. प्रा. विजयो. व मूला. टी. २३०; कार्तिके. टी. ४४६, पृ. ३३७-३८ ) । अपनी कुटी (झोंपड़ी) के बनाने के लिए लाए गये कुटीरक और चटाई आदि यदि साधु के लिये दी जाती है तो यह उसके लिये अभ्याहत नामका वसतिकादोष होता है ।
अभ्युत्थान- १. अभ्युत्थानं गुर्वादीनां प्रवेश- निष्क्रमणयोः । (भ. ना. विजयो. टी. ११६) । २. गुर्वादीनां प्रवेश - निष्क्रमणयोः सम्मुखमुत्थानं प्रभ्युत्थानम् । (भ. प्रा. मूला. टी. ११६) । ३. अभ्युत्थानमासनत्याग: । (समवा. अभय वृ. ६१, पृ. ६५) । १ गुरु श्रादि के श्राने-जाने पर उनके सम्मान प्रदर्शनार्थ अपना श्रासन छोड़कर खड़े हो जाने को प्रभ्युस्थान कहते हैं ।
अभ्युदय - १. पूजार्थाज्ञैश्वर्यैर्बल परिजन कामभोगभूयिष्ठैः । प्रतिशयितभुवनमद्भुतमभ्युदयं फलति सद्धर्मः ॥ ( रत्नक. श्रा. १३५) । २. इन्द्रपदं तीर्थंकर गर्भावतार जन्माभिषेक साम्राज्य - चक्रवर्तिपद - निःक्रमणकल्याण महामण्डलेश्वरादिराज्यादिकं सर्वार्थसिद्धिपर्यन्तमहमिन्द्रपदं सर्वं सांसारिकं विशि
विशिष्टं सुखमभ्युदयमित्युच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ७-२६)।
१ पूजा-प्रतिष्ठा, धन-सम्पत्ति, श्राज्ञा, ऐश्वर्य, बल, परिजन और कामभोग; इत्यादि की प्रचुरता से प्राप्ति होना, इसका नाम श्रभ्युदय है ।
- एवं बंधं पाविण से अब्भाणं वा वारिसु वा हा प्रभा णाम । ( धव. पु. १४, पृ. ३५) । वर्षा-विहीन मेघ न कहलाते हैं । प्रभावकाशशयन - ग्रब्भावगासरायणं बहिर्निरावरणदेशे शयनम् । (भ. प्रा. विजयो. व मूला. टी. २२५)।
गृह श्रादि के बाहर निरावरण स्थान में सोने को श्रावकाशशयन कहते हैं । श्रावकाशाऽतिचार -- १. सचित्तायां भूमौ त्रस
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अमनस्क
सहितहरितसमुत्थितायां विवरवत्यां शयनम्, प्रकृतभूमि- शरीरप्रमार्जनस्य हस्त पादसंकोच - प्रसारणम्, पारवन्तिरसंचरणम्, कण्डूयनं वा, हिम-समीरणाभ्यां हृतस्य कदैतदुपशमो भवतीति चिन्ता, वंशदलादिभिरुपरि निपतितहिमापकर्षणम् अवश्यायघट्टना वा प्रचुरवातातपदेशो ऽयमिति संक्लेशः अग्नि- प्रावरणादीनां स्मरणम् अभ्रावकाशातिचार: । (भ. श्री. विजय. टी. ४८७) । २. अभ्रावकाशस्य हिमवाताभ्यामुपहतस्य कदैतदुपशमः स्यादिति चिन्ता, वंशदलादिभिरुपरि निपतित हिमस्यापकर्षणमवश्यायघट्टना वा, प्रभूतवातातपदेशोऽयमिति संक्लेशोऽग्नि- प्रावरणादीनां स्मरणमित्यादिकोऽभ्रावकाशातिचारः । (भ. प्रा. मूला. टी. ४८७) ।
१ संचित्त, त्रसजीव - बहुल एवं सछिद्र भूमिपर सोना; भूमि व शरीर के प्रमार्जन के बिना ही हाथ-पैर श्रादि को सकोड़ना व फैलाना, करवट बदलना, शरीर को खुजलाना तथा बर्फ व वायु से पीड़ित होने पर 'कब यह शान्त होता है' ऐसा चिन्तन करना, बांस के पत्तों आदि से ऊपर पड़ी प्रोसबिन्दुओं को हटाना; इत्यादि श्रावकाशशयन के श्रतिचार हैं । अभ्रावकाशी-श्रेऽवकाशोऽस्ति येषां तेऽभ्रावकाशिनः शीतकाले बहिः शायिनः । ( योगिभ.टी. १२) | शीतकाल में निरावरण प्रदेश में सोनेवाले साधु को श्रावकाशी कहते हैं ।
मध्यस्थ (मज्झत्थ) - जे गवि वट्टइ रागे णवि दोसे दोपह मज्झयारम्मि । सो होइ उ मज्झत्थो सेसा सव्त्रे अमज्भत्था ।। ( श्राव. नि. गा. ८०३) । जो न तो राग में वर्तमान रहता है और न द्वेष में भी, किन्तु उनके मध्य में अवस्थित रहता है; वह मध्यस्थ होता है । शेष सबको प्रमध्यस्थ जानना चाहिये ।
अमनस्क - १. न विद्यते मनो येषां तेऽमनस्काः । ( स. सि. २ - ११ ; त. वा. २, ११, १; त. सुखबो. २ - ११ ) । २. मनसो द्रव्य भावभेदस्य सन्निधानात् समनस्का:, तदसन्निधानादमनस्काः । XX X केचित् पुनरमनस्काः, शिक्षाद्यग्राहिवेदन कार्यस्य सिद्धे
यथानुपपत्तेः । ( त श्लो. २- ११) । ३. ये पुनभवमनसैवोपयोगमात्रेण मनःपर्याप्तिकरण विशेषनिरपेक्षेण युक्तास्तेऽमनस्का: । ( त. भा. सि. बृ. २ - ११) । ४. न विद्यते पूर्वोक्तं ( द्रव्य भावभेदं )
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