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अनुपक्रम]
७१, जैन-लक्षणावली [अनुपस्थान,अनुपस्थापन अनुपक्रम-१. जेणाउमुवकमिज्जइ अप्पसमुत्थेन इय- कहलाता है । जैसे-जीव का शरीर । २ अबुद्धिरगेणावि । सो अझवसाणाई उवक्कमो अणवक्कमो पूर्वक होने वाले क्रोधादिक भावों में जीव के भावों इअरो। (संग्रहणी. २६६ )। २. इतरस्तु तद्विपरीतो की विवक्षा करने को अनुपचरितासद्भूतव्यवहार(आयुषोऽपर्वर्तनहेतुभूताध्यवसानादिनाऽऽत्मसमुत्थेन नय कहते हैं। बाह्य न च विषाग्नि-शस्त्रादिना विरहितो) ऽनुप- अनुपदेश–अनर्थक उपदेशोऽनुपदेशः। (त. वा. क्रमः । (संग्रहणी. दे. वृ. २६६)।
१,४, २)। प्राय के अपवर्तन (विघात) के कारणभूत प्रध्यव- निरर्थक उपदेश का नाम अनपदेश है। सान आदि तथा बाह्य विष, शस्त्र एवं अग्नि प्रादि अनपरतकायिकी क्रिया -उपरतो देशतः के प्रभाव का नाम अनुपक्रम है।
सर्वतो वा सावद्ययोगाद्विरतः । नोपरतोऽनुपरतः, अनुपगृहन-प्रमादाज्जातदोषस्य जिनमार्गरतस्य । कुतश्चिदप्यनिवृत्त इत्यर्थः । तस्य कायिकी अनुपरततु। ईर्ण्ययोद्भासनं लोके तत् स्यादनुपगृहनम् ।। कायिकी। इयं प्रतिप्राणिनि वर्तते । इयमविरतस्य (धर्मसं. श्रा. ४-४६)।
वेदितव्या, न देशविरतस्य सर्वविरतस्य वा । (प्रज्ञाप. ईर्ष्या के वश जिनमार्ग पर चलने वाले किसी मलय. व. २२-२७९)। धर्मात्मा के प्रमादजनित दोष के प्रकट करने को जो सावध योग से-पाप कार्यों से-सर्वदेश या एकअनूपगूहन कहते हैं।
देश रूप से विरत नहीं है उसका नाम अनुपरत अनपचरितस तव्यवहारनय-१. निरुपाधि- (अविरत) है। उसके द्वारा जो भी शरीर से क्रिया गुण-गुणिनोर्भेदविषयोऽनुपचरितसद्भूतव्यवहारो यथा की जाती है वह अनुपरतकायिकी क्रिया कहजीवस्य केवलज्ञानादयो गुणाः। (पालाप. प. १४८)। लाती है। २. स्यादादिमो यथान्तीना या शक्तिरस्ति यस्य अनुपलम्भ-अन्योपलम्भोऽनुपलम्भः । (प्रमाणसं. सतः। तत्तत्सामान्यतया निरूप्यते चेद्विशेषनिरपेक्षम् ।। स्वो.व.३१)। इदमत्रोदाहरणं ज्ञानं जीवोपजीवि जीवगुणः । ज्ञेया- किसी एक के प्रभावस्वरूप जो अन्य की उपलब्धि लम्बनकाले न तथा ज्ञेयोपजीवि स्यात् ।। (पंचा- होती है उसका नाम अनुपलम्भ है । जैसे-क्षणक्षय ध्यायी १, ५३५-३६)। ३. निरुपाधिगुण-गुणि- एकान्त सम्भव नहीं है, क्योंकि उसका अनुपलम्भ नोर्भेदकोऽनुपचरितसद्भूतव्यवहारः, यथा केवल- है-वह पाया नहीं जाता। यहाँ क्षणक्षय एकान्त ज्ञानादयो गुणाः । (नयप्रदीप पृ. १०२)। ___ का अनुपलम्भ कथंचित् नित्यानित्यात्मक अनेकान्त १ उपाधिरहित गुण-गुणी के भेद को विषय करने की उपलब्धिस्वरूप है। वाले नय को अनुपचरित-सद्भूत-व्यवहारनय कहते अनुपवास--१. जलवर्जनचतुर्विधाहारत्यागः, ईषहैं । जैसे जीव के केवलज्ञानादि गुण। २ वस्तु की दुपवासोऽनुपवास इति व्युत्पत्तेः । (सा. घ. स्वो. अन्तर्गत शक्ति के विशेष-निरपेक्ष होकर सामान्य- टी.५-३५) । २.xxx प्रारम्भादनुपवासः ।। रूप से निरूपण करने वाले नय को अनुपचरित- (धर्मसं. श्रा. ६-१७०)। सद्भूत-व्यवहारनय कहते हैं।
१ जल को छोड़ कर शेष चारों प्रकार के प्राहार के अनुपचरितासद्भूतव्यवहारनय – १. संश्लेष- परित्याग को अनुपवास कहसे हैं । २ अथवा गृह सहितवस्तुसम्बन्धविषयोऽनुपचरितासद्भूतव्यवहारो सम्बन्धी कार्य को करते हुए जो उपवास किया यथा जीवस्य शरीरमिति । (पालाप. पृ. १४८; जाता है उसे अनुपवास कहते हैं। नयप्रदीप १४, पृ. १०३)। २. अपि वा ऽसद्भूतो अनुपस्थान, अनुपस्थापन (परिहारप्रायश्चित्त) योऽनुपचरिताख्यो नयः स भवति यथा। क्रोधाद्या -१.अपकृष्टयाचार्यमूले प्रायश्चित्तग्रहणमनुपस्थापजीवस्य हि विवक्षिताश्चेदबुद्धिभवाः ॥ (पंचाध्यायी नम् । (त. वा. ६, २२, १०)। २. परिहारो दुविहो
प्रणवट्रो पारंचिो चेदि । तत्थ प्रणवटूनो १ जो नय संश्लेश (संयोग) युक्त वस्तु के सम्बन्ध को जहण्णेण छम्मासकालो उक्कस्सेण बारसवासपेरंतो। विषय करता है वह अनुपचरित-प्रसद्भूतव्यवहारनय कायभूमीदो परदो चेव कयविहारो पडिवंदणविर
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