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प्रस्तावना
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शताब्दी है। ग्रन्थ की भाषा अपभ्रश है। वह प्रायः दोहा छन्द में रचा गया है। अन्तिम दो पद्यों में प्रथम स्रग्धरा छन्द में और दूसरा मालिनी छन्द में रचा गया है। इसमें २ अधिकार व पद्यसंख्या १२३+२१४३३७ है। इनमें कुछ प्रक्षिप्त पद्य भी सम्मिलित हैं। इसमें बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के स्वरूप को प्रगट करते हुए द्रव्य, गुण, पर्याय, निश्चयनय, मोक्ष, मोक्षफल और निश्चय-व्यवहार के भेद से दो प्रकार के मोक्षमार्ग का विवेचन किया गया है।
ग्रन्थ की रचना योगीन्दु देव के द्वारा शिष्य प्रभाकर भट्ट की विज्ञप्ति पर की गई है । ग्रन्थ को प्रारम्भ करते हुए मंगल के पश्चात् यहाँ यह कहा गया है कि भट्ट प्रभाकर ने भावतः पंच गुरुत्रों को नमस्कार कर निर्मल भावपूर्वक योगीन्दु जिनसे विज्ञप्ति की कि स्वामिन्, संसार में रहते हए अनन्त काल बीत गया, पर मैंने थोड़ा भी सूख नही प्राप्त किया, किन्तु दुख ही अधिक प्राप्त किया है। इसलिए कृपाकर मुझे चतुर्गति के दुःख को नष्ट करनेवाले परमात्मा के स्वरूप को कहिये । इस प्रकार से विज्ञापित योगीन्दु देव कहते हैं कि हे भट्ट प्रभाकर सुनो, मैं तीन प्रकार के मात्मा के स्वरूप को कहता हूँ।
ग्रन्थ के अन्त में भी ग्रन्थकार यह अभिप्राय प्रगट करते हैं कि यहां जो कहीं-कहीं कुछ पुनरुक्ति हुई है वह प्रभाकर भट्ट के कारण से हुई है, अतः पण्डित जन उसे न तो दोषजनक ग्रहण करें और न गण ही समझे।
इसके ऊपर ब्रह्मदेव के द्वारा टीका रची गई है। ब्रह्मदेव विक्रम की ११-१२वीं शताब्दी के विदाम हैं। उन्होंने भोजदेव के राज्यकाल (वि. सं. १०७०-१११०) में द्रव्यसंग्रह की टीका लिखी है। इन्होंने भी अपनी टीका में प्रभाकर भट्ट का शंकाकार के रूप में उल्लेख करते हुए कहा है कि यदि पूण्य मुख्य रूप से मोक्ष का कारण व उपादेय नहीं है तो भरत, सगर, राम और पाण्डव आदि भी निरन्तर परमेष्ठिगुणस्मरण एवं दान-पूजा आदि के द्वारा भक्तिवश पुण्य का उपार्जन किसलिए करते रहे हैं।
यह उक्त टीका के साथ परमश्रुत प्रभावक मण्डल बम्बई से प्रकाशित हमा है। इसका उपयोग इन शब्दों में हुमा है
मूल-परमात्मा और बहिरात्मा प्रादि । टीका-प्रव्याबाधसुख प्रादि ।
६०. सन्मतिसूत्र-यह प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचा गया एक प्राकृत गाथाबद्ध ग्रन्थ है. जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्परामों में समानरूप से प्रतिष्ठित है। ये सिद्धसेन भ्यायावतार के कर्ता से भिन्न व उनके पूर्ववर्ती हैं । इनका समय विक्रम की छठी या सातवीं शताब्दी है। वे नियुक्तिकार भद्रबाहु (द्वितीय) के बाद और जिनभद्र क्षमाश्रमण के पूर्व (वि. सं. ५६२-६६६) किसी समय में हए हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ तीन काण्डों में विभक्त है। समस्त गाथासंख्या ५४+४३+७०=१६७ है। उक्त तीन काण्डों में प्रथम का नाम नयकाण्ड और द्वितीय का नाम जीवकाण्ड पाया जाता है, तीसरे काण्ड का कोई नाम उपलब्ध नहीं होता। इसके ऊपर प्रद्युम्न सूरि के शिष्य अभयदेव सरि (विक्रम की १०वीं शताब्दी) द्वारा विरचित विस्तृत टीका है। इसके प्रथम काण्ड में नय-विशेषतया द्रध्याथिकब पर्यायर्थिक नय-के स्वरूप का विचार करते हुए उनके प्राश्रय से निक्षेपविधि की योजना १. परमा. १,८-११. २. इत्थु ण लेवउ पंडियहि गुण-दोसु वि पुणरुत्तु ।
भट्ट-पभायर कारणई मई पुणु पुणु वि पउत्तु ॥२-२११. ३. अनेकान्त के 'छोटेलाल जैन स्मृति अंक' में 'द्रव्यसंग्रह के कर्ता और टीकाकार के समय पर विचार
शीर्षक लेख । पृ. १४५.४८. ४. परमा. २.६१. ५. पुरातन जैन वाक्यसूची की प्रस्तावना, पृ. १४४.४७.
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