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अचित्तनोकर्मद्रव्यबन्धक] १८, जैन-लक्षणावली
[अचौर्यमहाव्रत प्रचित्तनोकर्मद्रव्यबन्धक (अचित्तणोकम्मदव- जो स्वामी द्वारा नहीं दिये गये हैं-लेने को बंधय ) - अचित्तणोकम्मबंधया जहा कट्ठाणं प्रचित्तादत्तादान कहते हैं। बंधया, सुप्पाणं बंधया, कडयाणं बंधया इच्चेवमादि। अचेलक-१. न विद्यन्ते चेलानि वासांसि यस्या(धव. पु. ७, पृ. ४)।
सावचेलकः । (स्थानांग अभय. व. ५, ३, ६५१) । अचेतन लकड़ियों के बन्धकों (बढ़ई), सूप व २. अविद्यमानं नञ् कुत्सार्थे कुत्सितं वा चेलं यस्याटोकरी आदि के बन्धकों (बसोर) तथा चटाई प्रादि सावचेलकः। (प्रव. सारो. व. ७८, ६५१) । के बन्धकों को प्रचित्तनोकर्मद्रव्यबन्धक समझना २ जिसके या तो किसी प्रकार का वस्त्र ही नहीं है, चाहिये।
अथवा कुत्सित वस्त्र है; वह अचेलक है। प्रचित्तपरिग्रह-प्रचित्तं रत्न-वस्त्र-कुप्यादि, तदेव अचेलकत्व- १. न विद्यते चेलं यस्यासावचेलकः, चाचित्तपरिग्रहः । (प्रा. व. सू. ५)।
अचेलकस्य भावोऽचेलकत्वं वस्त्राभूषणादिपरिग्रहरत्न, वस्त्र और सोना-चांदी प्रादि प्रचित्त परिग्रह त्यागः । (मला. व. १-३)। २. औत्सर्गिकमचेलकहलाते हैं।
कत्वम् XXXI (भ.प्रा. अमित. ८०)। प्रचित्तप्रक्रम (अचित्तपक्कम)-हिरण्ण-सुवण्णा- वस्त्राभूषणादि परिग्रह को छोड़ कर स्वाभाविक दीणं पक्कमो अचित्तपक्कमो णाम । (धव. पु. १५, वेष (निर्ग्रन्थता) को स्वीकार करना, इसका नाम पृ. १५)।
अचेलकत्व है। सोना व चांदी आदि के प्रक्रम को प्रचित्तप्रक्रम अचेलत्व-देखो आचेलक्य । चेलानां वस्त्राणां कहा जाता है।
बहधन-नवीनावदात-सुप्रमाणानां सर्वेषां वाऽप्रभावः प्रचित्तमङ्गल-अचित्तमङ्गलं कृत्रिमाकृत्रिमरीत्या- अचेलत्वम् । (समवा. अभय. वृ. २२, पृ. ३६)। लयादिः । (धव. पु. १, पृ. २८) ।
देखो अचेलकत्व। कृत्रिम व प्रकृत्रिम चैत्यालय प्रादि अचित्त अचेलपरीषहजय-एगया अचेलए होई सचेले मङ्गल हैं।
यावि एगया। एयं धम्महियं णच्चा णाणी णो परिअचित्तयोनिक-तत्राचित्तयोनिका देव-नारकाः। देवए॥ (उत्तरा. २-१३); xxx अचेलस्य देवाश्च नारकाचाचित्तयोनिकाः, तेषां हि सत: किमिदानीं शीतादिपीडितस्य मम शरणमिति योनिरुपपादप्रदेशपुद्गलप्रचयोऽचित्त: । (त. वा. न दैन्यमालम्बेत । (उत्तरा. नेमि. वृ. २-१३)। २, ३२, १८)।
ज्ञानी कभी सर्वथा वस्त्ररहित होकर और कभी प्रचित्त उपपादस्थान पर उत्पन्न होने वाले देव कुत्सित व उत्तम वस्त्र धारण करके भी इसे साथव नारकी अचित्तयोनिक हैं।
धर्म के लिए हितावह समझते हुए शीत प्रादि से अचित्ता (योनि)-देखो अचित्त । १. अचित्ता पीड़ित होने पर भी कभी दैन्य भाव को प्राप्त नहीं (योनिः) सर्वथा जीवविप्रमुक्ता। (प्रज्ञाप. मलय. होता, इसी का नाम अचेलपरीषहजय है। व. 8-१५१) । २. सुराणां निरयाणां च योनिः प्रचौर्यमहाव्रत-१. गामे वा णयरे वा रण्णे वा अचित्ता - सर्वथा जीवप्रदेशविप्रमुक्ता। (संग्रहणी पेच्छिऊण परमत्थं । जो मुंचदि गहणभावं तिदियदे. भ. वृ. २५४)।
वदं होदि तस्सेव ।। (नियमसार ५८) । २. गामाजो उत्पाद-स्थान-प्रवेश जीवों से सर्वथा रहित होते दिसु पडिदाई अप्पप्पहुदि परेण संगहिदं। णादाण हैं उन्हें अचित्ता योनि कहते हैं।
परदव्वं प्रदत्तपरिवज्जणं तं तु ॥ (मूला. १-७); प्रचित्तादत्तादान-प्रचित्तं वस्त्र-कनक-रत्नादि, गामे णगरे रणे थूलं सच्चित्त बहु सपडिवक्खं । तस्यापि क्षेत्रादौ सुन्यस्त-दुर्व्यस्त-विस्मृतस्य स्वामि- तिविहेण वज्जिदव्वं अदिण्णगहणं च तण्णिच्चं ।। नाऽदत्तस्य चौर्यबुद्धघादानमचित्तादत्तादानमिति । (मला. ५-६४)। ३. सव्वाअो अदत्तादाणामो (प्राव. वृ. ६, ८२२)।
वेरमणं । (समवा. सू. ५, पाक्षिक सूत्र प. २२) । खेत आदि में गढे हुए व रखे हुए तथा भूले हुए ४. अल्पस्य महतो वापि परद्रव्यस्य साधुना । अनासोना, चाँदी व रुपये-पैसे प्रादि अचेतन वस्तुओं के- दानमदत्तस्य तृतीयं तु महाव्रम् ।। (ह. पु. २,
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