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प्रस्तावना
इसके अतिरिक्त तिलोयपणती की कितनी ही गाथानों को यहाँ उसी रूप में अथवा कुछ शब्दपरिवर्तन के साथ इसके अन्तर्गत कर लिया गया है।
तिलोयपण्णत्ती की रचना जिस प्रकार भाषा की दृष्टि से समृद्ध व प्रौढ़ तथा विषविवेचन की दृष्टि से सुसम्बद्ध है, इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना नहीं है---वह भाषा की दृष्टि से शिथिल और विषयविवेचन की दृष्टि से कुछ अव्यवस्थित है । पुनरुक्ति भी प्रस्तुत ग्रन्थ में जहाँ तहाँ देखी जाती है।
ग्रन्थ का प्रकाशन जैन संस्कृति संरक्षक संघ (जीवराज जैन ग्रन्थमाला) सोलापुर द्वारा हो चका है । इसका उपयोग आत्माङ्गुल आदि शब्दों में हुआ है।
१०१. कर्मस्तव-यह द्वितीय प्राचीन कर्मग्रन्थ है। इसके कर्ता का नाम ज्ञात नहीं है । इसमें ५५ गाथायें हैं । यहाँ सर्वप्रथम जिनवरेन्द्र को नमस्कार करते हुए बन्ध, उदय और सत्त्वयुक्त स्तव के कहने की प्रतिज्ञा की गई है। बन्ध, उदय और सत्ता के व्यवच्छेद का प्ररूपक होने से चूंकि यह असाधारण सद्भूत गुणों का कीर्तन करने वाला है, अत एव इसे नाम से स्तव कहा गया है। यहाँ प्रथमतः गुणस्थानक्रम से बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता से व्युच्छिन्न होने वाली प्रकृतियों की संख्या का निर्देश करके तत्पश्चात् उसी क्रम से उन कर्मप्रकृतियों का नामोल्लेख भी किया गया है। इसके ऊपर गोविन्द गणी (सम्भवतः विक्रम की १३वीं शताब्दो) द्वारा टीका लिखी गई है। इस टीका के साथ वह पूर्वोक्त कर्मविपाक के साथ जैन प्रात्मानन्द सभा भावनगर से प्रकाशित हुया है। इस पर एक ३२ गाथात्मक अज्ञातकर्तृक भाष्य भी है, जो ग्रन्थ के अन्त में मुद्रित है। इसकी टीका का उपयोग अचक्षदर्शन, अन्तराय कर्म, अपर्याप्तनाम, अप्रत्याख्यानावरणक्रोधादि, अवाय, प्रातप नामकर्म, उच्छ्वासपर्याप्ति, उदय, उदीरणा और उद्योतनाम आदि शब्दों में हमा है।
१०२. षडशीति-इसका दूसरा नाम आगमिकवस्तुविचारसार प्रकरण है । यह चतर्थ प्राचीन कर्मग्रन्थ है। इसके कर्ता जिनवल्लभ गणी (विक्रम की १२वीं शताब्दी) हैं। गाथायें इसमें ८६ हैं। यहां सर्वप्रथम पाव जिन को नमस्कार करते हुए गुरु के उपदेशानुसार जीवस्थान, मार्गणास्थान, गणस्थान, उपयोग, योग और लेश्या के कुछ कहने की प्रतिज्ञा की गई है। तदनुसार इसमें प्रागे कम से जीवस्थानों में गणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या, बन्ध, उदय, उदीरणा व सत्तास्थानों की प्ररूपणा: मार्गणा. स्थानों में जीवस्थान, गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या प्रोर अल्पबहुत्व की प्ररूपणा; तथा गुणस्थानों में जीवस्थान, योग, उपयोग, लेश्या, बन्धहेतु, बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्तास्थान और अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है।
अन्त में अपने नाम का निर्देश करते हुए ग्रन्थकार ने कहा है कि जिनबल्लभ के द्वारा लाया गया (रचा गया) यह जिनागमरूप अमृतसमुद्र का बिन्दु है। हितेषी विद्वज्जन इसे सुनें, उसका मनन करें. और जानें।
इस पर एक टीका हरिभद्रसूरि के द्वारा रची गई है। ये देवसूरि के प्रशिष्य और जिनदेव उपाध्याय के शिष्य थे। उक्त टीका उन्होंने अणहिल्लपाटकपुर में जयसिंहदेव के राज्य में प्राशापर बमति में विक्रम सं.१९७२ में लिखी है। दूसरी टीका सुप्रसिद्ध प्रा. मलयगिरि के द्वारा लिखी गई है। इन दोनों टीकाओं के साथ ग्रन्थ कर्मविपाकादि के साथ जैन प्रात्मानन्द सभा भावनगर से प्रकाशित हमा है। इस पर एक ३८ गाथात्मक अज्ञातकर्तृक भाष्य भी है जो ग्रन्थसंग्रह के अन्त में मुद्रित है। इसका उपयोग (टीका से) अचक्षुदर्शन, अनन्तानुबन्धी, आहारक (शरीर), आहारक (जीव) और उपयोग आदि शब्दों में हुआ है।
(शेष अगले भाग में)
१. देखिये ति. प. भा. २, प्रस्तावना पृ. ६५-७० और जंबूदीवपण्णत्ती की प्रस्तावना पृ. १२८.
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