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प्रस्तावना
है, अथवा सान्तर-निरन्तर होता हैं। इन नौ प्रश्नों का समाधान किया गया है। दूसरी चूलिका में उद्वेलन, विध्यात, अधःप्रवृत्त, गुण और सर्व; इन पांच संक्रमणों का विचार किया गया है। इस दूसरी चूलिका के प्रारम्भ (४०८) में अपने गुरु अभयनन्दी का स्मरण करते हुए कहा गया है कि अभयनन्दी का वह श्रुत-समुद्र पाप मन को दूर करे, जिसके मथन के बिना ही नेमिचन्द्र अतिशय निर्मल हो गया। तीसरी चूलिका को प्रारम्भ करते हए (४३६) में यह कहा गया है कि वीरेन्द्रनन्दी (अथवा वीरनन्दी और इन्द्रनन्दी) का वत्स मैं (नेमिचन्द्र) उन अभयनन्दी गरु को नमस्कार करता हैं, जिनके चरणों के प्रसाद से अनन्त संसाररूप समुद्र से पार हुआ। इस तीसरी चूलिका में बन्ध, उत्कर्षण, संक्रम, अपकर्षण, उदीरणा, सत्त्व, उदय, उपशामन, निधत्ति और निकाचना इन दस करणों का विवेचन किया गया है।
(५) बन्ध-उदय-सत्त्वस्थानसमत्कीर्तन-इस अधिकार में बन्ध, उदय और सत्त्व के साथ प्रकृतियों के विभिन्न स्थानों का निरूपण किया गया है।
(६) प्रत्ययप्ररूपणा-इस अधिकार को प्रारम्भ करते हए प्रथमत: (७८५) श्रृतसर के पार. गामी इन्द्रनन्दी के गरु और उत्तम वीरनन्दी के स्वामी ऐसे अभयनन्दी को नमस्कार किया गया है। पश्चात् यहाँ बन्ध के कारणभूत पांच मिथ्यात्व, बारह प्रकार की अविरति, पच्चीस कषाय और पन्द्रह योग इन सत्तावन भेद (५+१२+२५+१५५७) रूप प्रास्रव का गुणस्थान क्रम से निरूपण किया गया है ।
(७) भावचूलिका- यहाँ प्रारम्भ (८११) में गोम्मट जिनेन्द्र-चन्द्र को नमस्कार करते हुए गोम्मट पदार्थ संयुक्त व गोम्मटसंग्रह की विषयभत भावगत घलिका के कहने की प्रतिज्ञा की गई है। पश्चात् की गई इस प्रतिज्ञा के अनुसार यहाँ अपने उत्तर भेदों के साथ प्रौपशमिक, क्षायिक, मिश्र, प्रौदयिक और पारिणामिक इन भावों का विवेचन किया गया है।
(0) त्रिकरणचलिका-- इस अधिकार में मोहनीय की इक्कीस (दर्शनमोहनीय तीन और अनन्तानुबन्धिचतुष्टय से रहित) प्रकृतियों के क्षय व उपशामन के कारणभूत अधःप्रवृत्त करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्ति करण इन तीन परिणामों की प्ररूपणा की गई है।
(६) कर्मस्थितिरचनासद्भाव-बांधे हए कर्म कब तक उदय को प्राप्त नहीं होते और फिर अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार वे किस क्रम से निर्जीर्ण होते हैं, इस सबका विचार इस अन्तिम अधिकार में किया गया है।
अन्तिम प्रशस्ति में ग्रन्थकार ने कर्म की निर्जरा और तत्व के अवधारण के लिए गोम्मटदेव के द्वारा गोम्मट संग्रहसूत्र गोम्मट के रचे जाने का संकेत करते हुए यह कहा है कि जिनमें गणघरदेवादि ऋद्धिप्राप्त महर्षियों के गुण विद्यमान हैं ऐसे वे अजितसेन स्वामी जिसके गुरु हैं वह राजा (चामुण्डराय या गोम्मटराय) जयवन्त हो। गोम्मटसंग्रहसूत्र, गोम्मटशिखर के ऊपर गोम्मटजिन और गोम्मट राय (चामुण्डराय) के द्वारा निर्मित दक्षिणकुक्कुटजिन जयवन्त हों। जिस गोम्मट के द्वारा निर्मित प्रतिमा का मुख सर्वार्थसिद्धि के देवों और सर्वावधि व परमावधि के धारक योगियों के द्वारा देखा गया है वह गोम्मट जयवन्त हो । जिसने ईषत्प्राग्भार नाम के अनुपम जिन भवन का निर्माण कराया वह चामुण्डराय जयवन्त हो । जिस गोम्मट राय के द्वारा खड़े किये गये स्तम्भ के ऊपर जो यक्षमूर्तियां हैं उनके मुकुट की किरणों से सिद्धों के पाद धोये जाते हैं, वह गोम्मटराय जयवन्त हो। जिसने गोम्मटसूत्र के लिखने में देशी (?) की वह गोम्मटराय, अपर नाम वीरमार्तण्डी, चिरकाल जीवित रहे । १. इस सबका विस्तृत विवेचन षट्खण्डागम के द्वितीय खण्ड बन्धस्वामित्वविचय (पु. ८) में किया
गया है। २. संस्कृत टीका में इस गाथा का अर्थ करते हए अभयनन्दी इन्द्रनन्दि गरु और वीरनन्दिनाथ इन
तीनों को ही किये गये नमस्कार का निर्देश किया गया है तथा वहाँ गाथामें अप्रयुक्त 'च' शब्द का अध्याहार किया गया है। स्व. पं. नाथूराम जी प्रेमी ने इन्द्रनन्दी और वीरनन्दी को प्रा. नेमिचन्द्र का ज्येष्ठ गुरुभाई बतलाया है (जन साहित्य और इतिहास पृ. २७०।
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