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औपचारिक विनय ]
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उप
है । अभिप्राय यह है कि स्वयं उदय को प्राप्त हुए श्रथवा उदीरणाकरण के द्वारा उदय में लाये गये वेदनीय कर्म के फल के अनुभवन से रचित वेदना को श्रपक्रमिक वेदना कहा जाता है । श्रौपचारिक विनय — देखो उपचारविनय । चरणम् उपचार: – श्रद्धानपूर्वकः क्रियाविशेषलक्षणो व्यवहारः, स प्रयोजनमस्येत्यौपचारिकः । × × × विनीयते क्षिप्यतेऽनेनाष्टप्रकारं कर्मेति विनयः । X X x विनीयते चास्मिन् सति ज्ञानावरणादिरजोराशिरिति विनयः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-२३) । उपचार का अर्थ है श्रद्धापूर्वक किया गया विशिष्ट क्रियारूप व्यवहार तथा जिसके द्वारा या जिसके होने पर आठ प्रकारका कर्म-रज विनष्ट होता है उसे विनय कहते हैं । उपर्युक्त उपचाररूप प्रयोजन जिससे सिद्ध होता है वह औपचारिक कहलाता है । श्रमिक-उपमया निर्वृत्तमीपमिकम्, उपमामन्तरेण यत्कालप्रमाणमनतिशयिना गृहीतुं न शक्यते तदीपमिकमिति । (श्रनुयो. हरि. वृ. पृ. ८४; जम्बूद्वी. शा. वृ. २- १८ ) । उपमा से निर्मित काल को श्रौपमिक काल कहा जाता है। अभिप्राय यह है कि साधारण बुद्धि वाला प्राणी पल्य व सागर श्रादि उपमा के विना जिस कालप्रभाण को नहीं जान सकता है उसे श्रौपमिक काल कहते हैं । औपम्योपलब्धि - १. पुव्वं पि श्रणुवलद्धो धिप्पइ श्रत्थोउ कोइ प्रवम्मा । जह गोरेवं गवयो किंचिविसेसेण परिहीणो । (बृहत्क . ५२ ) । २. × × × अत्रेयं भावना - 'यथा गौस्तथा गवयः' इति श्रुत्वा कालान्तरेणाटव्यां पर्यटन् गवयं दृष्ट्वा ' गवयोऽयम्' इति यदक्षरजातं लभते एषा श्रौपम्योपलब्धिः । (बृहत्क. वृ. ५२ ) ।
पूर्व में कभी नहीं जाना गया कोई पदार्थ उपमाके बल से जो जाना जाता है, इसे श्रौपम्योपलब्धि कहते हैं । जैसे- 'गवय गौ के समान होता है' इस उपमान के आश्रय से पूर्व में अज्ञात गवय का यह गवय है' । इस प्रकार जो अक्षरज्ञान हुआ करता है, इसी का नाम श्रौपम्योपलब्धि है । श्रीपशमिक श्रविपाकप्रत्यधिक जीवभावबन्धजो सो श्रो समिश्र अविवागपच्चइम्रो जीवभावबंधो णाम तस्स इमो णिद्देशो से उवसंत कोहे उवसंत
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जैन - लक्षणावली
[ श्रपशमिक भाव
माणे उवसंतमाए उवसंतलोहे उवसंतरागे उवसंतदोसे उवसंतमोहे उवसंतकसायवीय रायछदुमत्थे उवसमियं सम्मत्तं उवसमियं चारितं जे चामण्णे एवमादिया उवसमिया भावा सो सव्वो उवसमियो अविवागपच्चइम्रो जीवभावबंध णाम । ( ष. खं. ५, ६, १७– पु.१४, पृ. १४) ।
क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष और मोह; इनमें से प्रत्येक के उपशान्त होने पर तथा उपशान्तकषायवीतराग छद्मस्थ के जो श्रौपशमिक सम्यक्त्व व श्रीपशमिक चारित्र तथा और भी जो इसी प्रकार के अन्य श्रपशमिक भाव होते हैं उन सबको प्रौपशमिक श्रविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध कहते हैं । श्रौपशमिकगुणयोग- श्रोवसमियसम्मत्त-संजमे हि जीवस्स जोगो प्रोवसमियगुणजोगो । ( धव. पु. १०, पृ. ४३३) ।
जीव का जो श्रपशमिक सम्यक्त्व और श्रौपशमिक संयम के साथ सम्बन्ध होता है उसे श्रौपशमिकगुणयोग कहते हैं।
श्रौपशमिक चारित्र - १. कृत्स्नस्य मोहनीयस्योपशमादोपशमिकं चारित्रम् । ( स. सि. २-३) । २. श्रष्टाविंशतिमोहविकल्पोपशमादोपशमिकं चारित्रम् । अनन्तानुबन्ध्य प्रत्याख्यान प्रत्याख्यान-संज्वलनविकल्पाः षोडशकषायाः, हास्य- रत्य रति-शोकभय- जुगुप्सा स्त्री-पुंनपुंसक वेदभेदाः नवनोकषाया इति एवं चारित्रमोहः पंचविंशतिविकल्पः । मिथ्यात्वसम्यङ् मिथ्यात्व सम्यक्प्रकृतिभेदात् त्रितयो दर्शनमोहः । एषामष्टाविंशतिमोहविकल्पानां उपशमादौपशमिकं चारित्रम् । (त. वा. २, ३, ३) । ३. चारित्रमोहोपशमादोपशमिकचारित्रम् । (त. इलो. २, ३) । ४. उपशमश्रेण्यां त्रिषूपशमकेषु उपशान्तकषाये चैकविंशतिचारित्रमोहप्रकृतीना मुपशमादुत्पन्नसंयम रूपं निर्मलतरं सकलचारित्रमपसमिको भावः । ( गो . जी. म. प्र. टी. १४) । ५ षोडशकषायाणां नवनोकषायाणां च उपशमादीपशमिक चारित्रम् । (त. वृत्ति श्रुत. २ - ३ ) ।
१ समस्त मोहनीय के उपशम से जो चारित्र (यथाख्यात) प्रादुर्भूत होता है वह प्रपशमिक चारित्र कहलाता है ।
श्री शमिक भाव - १. आत्मनि कर्मणः स्वशक्तेः कारणवशादनुद्भूतिरुपशमः । यथा कतक्रादिद्रव्य
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