Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 411
________________ प्रोज ३०२, जैन-लक्षणावली [ोषधिप्राप्त पकाये जाने वाले चावल प्रादि में से कुछ भाग को जन्तुर्यत् प्रथममौदारिकशरीरयोग्यान् पुद्गलाना. भिक्षार्थ देने के उद्देश से कुछ और चावल मिला हरति यच्च द्वितीयादिसमयेष्वौदारिकादिमिश्रेणाकर पकाने को प्रोद्यौशिक कहते हैं। हारयति यावच्छरीरनिष्पत्तिः । यदूक्तम्-जोएण प्रोज- प्रोजं विहं तेजोज कलिग्रोज चेदि । तं कम्मएणं पाहारेइ अणंतरं जीवो। तेण परं मिस्सेणं जहा-जम्हि रासिम्हि चदुहि अवहिरिज्जमाणे जाव सरीरस्स निप्फत्ती ।। एष सर्वोऽप्योजस्तैजसतिण्णि टांति सो तेजोज । चदुहि अवहिरिज्जाणे सरीरम्, तेन आहार भोजप्राहारः। (संग्रहणी दे. जम्हि एग ठादि तं कलिप्रोज। (धव. पु. ३, पृ. वृ. १४०); अोज उत्पत्तिप्रदेशे स्वशरीरयोग्यपुद्२४६)। गलसलातस्तदाहारयन्ति, यद्वा प्रोजस्तैजसशरीरम, जिस राशि में ४ का भाग देने पर ३ या १ शेष तेनाऽऽहारो येषामित्योजनाहाराः । (संग्रहणी दे. बु. रहता है वह प्रोजराशि कही जाती है । वह तेजोज १४१)। ८. स सर्वोऽप्योजसाहार भोजो देहाहपुदऔर कलिनोज के भेद से दो प्रकार की है। जिस गलाः । प्रोजो वा तेजसः कायस्तद्रूपस्तेन वा कृतः॥ राशि में चार का भाग देने पर ३ अंक शेष रहें (लोकप्र. ३-११२५) । वह तेजोज तथा जिसमें ४ का भाग देने पर एक १प्रारोह-शरीर की ऊंचाई, परिणाह-दोनों अंक शेष रहे वह कलिनोज राशि कहलाती है। भुजाओं का विस्तार, इन दोनों की हीनाधिकता के प्रोज पाहार-१. आरोह-परीणाहा चियमंसो बिना तुल्यता; चितमांसत्व-शरीर में पांशुलि. इंदिया य पडिपुण्णा। यह प्रोयो।xxx॥ कानों का न दिखना; और परिपूर्ण इन्द्रियां; इन (बहत्क. २०५१)। २. तत्रौज पाहारोऽपर्याप्तका- सब प्रारोहादि को प्रोज कहा जाता है। ७ पूर्व वस्थायां कार्मणशरीरेण अम्बुनिक्षिप्ततप्तभाजनवत् शरीर को छोड़कर तैजस और कार्मण शरीर के पुदगलादानं सर्वप्रदेशर्यत् क्रियते जन्तुना प्रथमोत्पा- साथ मोडा लेकर या बिना मोड़े के-ऋजगति सेदकाले योनौ, अपूपेनेव प्रथमकालनिक्षिप्तेन घृतादे- ही अपने उत्पत्तिस्थान को प्राप्त हा जीव प्रथम रिति । एष चान्तर्महर्तिकः । (त. भा. सिद्ध. व. समय में प्रौदारिकशरीर के योग्य तथा द्वितीयादि २-३१)। ३. यस्तू घ्राण-दर्शन-श्रावणरुपलभ्यते समयों में प्रौदारिकमिश्र रूप से शरीर के पूर्ण होने धातभावेन परिणमति स प्रोज आहारः । (सूत्रकृ. शी. तक जो प्राहार ग्रहण करता है, यह सब प्रोजवृ. २, ३, १७० पृ.८८)। ४. सरिरेणी पाहारोx तेजसशरीर- कहलाता है ; इससे जो प्राहार होता है xx। (संग्रहणी सूत्र १४०, पृ. ६७) । ५. पक्खी- वह प्रोज प्राहार कहलाता है । णुज्जाहारो अंडयमझेसु वट्टमाणाणं । (प्रा. भाव- प्रोवेल्लिम-एक्क-दू-तिउणसुत्त-डोरा-वेदादिदव्वसं. ११२) । ६. पारोहो नाम शरीरेण नाति- मोवेल्लणकिरियाणिप्पण्णमोवेल्लिमं णाम । (धव. देयं नातिह्रस्वता, परिणाहो नाम नातिस्थौल्यं पु. ६, पृ..२७३)। नातिदुर्बलता, अथवा आरोहः शरीरोच्छ्रायः, परि- प्रोवेल्लण क्रिया से उत्पन्न इकहरे, दुगुने और तिगुने णाहः बाह्वोविष्कम्भः, एतौ द्वावपि तुल्यो, न हीना. सूत, डोरा एवं वेष्टन प्रादि द्रव्य प्रोवेल्लिम कहधिकप्रमाणो Xxx चितमांसत्वं नाम वपुषि लाते हैं। पांसुलिका नावलोक्यन्ते, तथा इन्द्रियाणि च प्रति- प्रोषधदान-रोगिभ्यो भैषज देयं रोगो देहविनाशपूर्णानि, न चक्षुः श्रोत्राद्यवयवविकलतेति भावः। कृत् । देहनाशे कुतो ज्ञानं ज्ञानाभावे न निवं तिः। पथ' एतद् प्रारोहादिकमोज उच्यते । (बृहत्क. क्षे. तस्मात् स्वशक्तितो दानं भैषज्यं मोक्षहेतवे । देहः व. २०५१) । ७. शीर्यते उत्पत्तिक्षणादूचं प्रतिक्षणं स्वयं भवेऽन्यस्मिन् भवेद् व्याधिविवर्जितः ।। (उपानश्यतीति शरीरम् । तेनव केवलेन य आहारः स सका. पू. ६५-६६)। प्रोज पाहारः । इदमुक्तं भवति-यद्यपि शरीरमौ- रोगी के लिये शक्ति के अनुसार औषधि का देना दारिक-वैक्रियिकाहारक-तैजस-कार्मणभेदात् पञ्चधा, प्रोषधदान कहलाता है। तथापीह तेजसेन तत्सहचारिणा कार्मणेन च शरीरेण प्रोषधिप्राप्त-एए अन्ने य बहू जेसि सव्वे वि पूर्वशरीरत्यागे विग्रहेण अविग्रहेण वोत्पत्तिदेशं प्राप्तो सूरहिणोऽवयवा। रोगोवसमसमत्था ते हंति तमो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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