Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 415
________________ प्रौदारिक-तैजस-कार्मणशरीर.] ३०६, जैन-लक्षणावली [औदारिकशरीर प्रौदारिक-तैजस-कार्मरणशरीरबन्ध- पोरालिय- वियाण मिस्सं अपरिपुण्णं त्ति। जो तेण संपयोगो तेया-कम्मइयसरीरखंधाणं एक्कम्हि जीवे णिविट्ठाणं ओरालियमिस्सकायजोगो सो ॥ (प्रा. पंचसं. १, जो अण्णोण्णेण बंधो सो अोरालिय-तेया-कम्मइय- ६४; धव. पु. १, पृ. १६१ उद्.; गो. जी. २३१)। सरीरबंधो णाम । (धव. पु. १४, पृ. ४३)। २. सः (प्रौदारिककाययोगः) एव कार्मणसहचरित एक जीव में स्थित प्रौदारिक, तैजस और कार्मण औदारिकमिश्रकाययोगः केवलिसमुदघाते द्वितीय-षष्ठशरीर सम्बन्धी स्कन्धों का जो परस्पर में बन्ध सप्तमसमयेषु समस्ति । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६.१)। होता है, उसे प्रौदारिक-तैजस-कार्मणशरीरबन्ध ३. कार्मणौदारिकस्कन्धाभ्यां जनितवीर्यात्तत्परिस्पकहते हैं। न्दनार्थः प्रयत्नः प्रौदारिकमिश्रकाययोगः । (धव. पु. औदारिक-तैजसबन्धननाम-१. येनौदारिकपुद- १, पृ. २६०); कार्मणौदारिकस्कन्धनिबन्धन जीवगलानां तैजसशरीरपुद्गलैः सह सम्बन्धो विधी- प्रदेशपरिस्पन्देन योगः औदारिकमिश्रकाययोगः । यते तत् प्रौदारिक-तैजसबन्धनं नाम । (कर्मवि. दे. (धव. पु. १, पृ. ३१६) । ४. xxx मिश्रोऽपस्वो. वृ. ३६, पृ. ४८)। २. तेषामेवौदारिकपुद्- र्याप्त इष्यते ।। (पंचसं. अमित. १-१७२)। ५. गलानां पूर्वगृहीतानां गृह्यमाणानां च तैजसपुद्गलै- औदारिक मिश्रं यत्र, कार्मणेनेति गम्यते, स भवत्यौगुंह्यमाणः पूर्वग्रहीतश्च सह सम्बन्ध प्रौदारिक-तैजस- दारिकमिश्रः । (शतक. मल. हेम. वृ. २-३, पृ. ५)। बन्धनम् । (कर्मप्र. यशो. टी. १, पृ. ७; पंचसं. ६. तदेवान्तर्मुहूर्तपर्यन्तमपूर्णमपर्याप्तं तावन्मिश्रमिमलय. वृ. ३-११)। त्युच्यतेऽपर्याप्तकालसम्बन्धिसमयत्रयसम्भविकार्मण१ जिसके द्वारा प्रौदारिकशरीर सम्बन्धी पुद्गलों का काययोगाकृष्टकार्मणवर्गणासंयुक्तत्वेन, परम गमरूतेजसशरीर सम्बन्धी पुद्गलों के साथ सम्बन्ध किया ढ्या वा ऽपर्याप्तम्, अपर्याप्तशरीरं मिश्रमित्यर्थः। जाता है, उसे औदारिक-तैजसबन्धन नामकर्म ततः कारणादौदारिककायमिश्रेण सह तदर्थं वर्तमानो कहते हैं। यः संप्रयोग प्रात्मनः कर्म नोकर्मादानशक्तिप्रदेशपरिऔदारिक-तैजसशरीरबन्ध-ओरालियसरीरपो. स्पन्दयोगः स शरीरपर्याप्तिनिष्पत्यभावेनौदारिकग्गलाणं तेयासरीरपोग्गलाणं च एक्कम्हि जीवे जो वर्गणास्कन्धानां परिपूर्णशरीरपरिणमनासमर्थ प्रौदापरोप्परेण बंधो सो पोरालिय-तेयासरीरबंधो णाम। रिकमिश्रकाययोगः । (गो. जी. जी. प्र. टी. २३१) । (धव. पु. १४, पृ. ४२)। ३ कार्मण और प्रौदारिक स्कन्धों से उत्पन्न हुई एक जीव में स्थित प्रौदारिकशरीर सम्बन्धी पुदगलों शक्ति से जो जीवप्रदेशों के परिस्पन्दन के लिये प्रयत्न का और तैजसशरीर सम्बन्धी पुदगलों का जो होता है, उसे औदारिकमिश्रकाययोग कहते हैं। यह परस्पर में बन्ध होता है उसे मौदारिक-तैजसशरीर- अपर्याप्त अवस्था में हुमा करता है। बन्ध कहते हैं। औदारिकशरीर-१. उदारं स्थूलम्, उदारे भवप्रौदारिकनाम-ओरालियं सरीरं उदएण होइ मौदारिकम्, उदारं प्रयोजनमस्येति वा प्रौदारिकम् । जस्स कम्मरस । तं पोरालियनामंxxx॥ (स. सि. २-३६) २. उद्गतारमुदारम्, उत्कटार(कर्मवि. ग. ८६, पृ. ३६)।। मुदारम्, उद्गम एव वोदारम्, उपादानात्प्रभृति जिस कर्म के उदय से प्रौदारिकशरीर होता है. अनूसमयमुद्गच्छति वर्धते जीर्यते शीर्यते परिणमतीउसे प्रौदारिकनामकर्म कहते हैं। त्यूदारम, उदारमेवौदारिकम । xxx यथोदगमं औदारिकमिश्र-यदोदारिकमारब्धं न च पूर्णीकृतं वा निरतिशेषम्, ग्राह्य छेद्यं भेद्यं दाह्य हार्यमित्युभवेत् । तावदीदारिकमिश्रः कार्मणेन सह ध्रुवम् ॥ दाहरणादौदारिकम् । XXX उदारमिति च (लोकप्र. ३-१३०८)। स्थूलनाम स्थूलमुद्गतं पुष्टं बृहन्महदिति, उदारप्रारम्भ किया हुआ प्रौदारिकशरीर जब तक पूर्ण मेवौदारिकम् । (त. भा. २-४६)। ३. उदारात् नहीं होता है तब तक वह कार्मणशरीर के साथ स्थलवाचिनो भवे प्रयोजने वा ठञ् । उदारं स्थूल. औदारिकमिश्र कहलाता है। मिति यावत्, ततो भवे प्रयोजने वा ठञि प्रौदारिकमौदारिकमिश्रकाययोग--- १. अंतोमुहृत्तमज्झं मिति भबति । (त. वा. २, ३६, ५) । ४. उदारं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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