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एकत्वानुप्रेक्षा ]
नादर्थे तथाऽर्थाद् व्यञ्जनेऽपि वा । विचारो ऽत्र तदेकत्ववितर्कमविचारि च ॥ मनःप्रभृतियोगानामप्येकस्मात् परत्र नो । विचारोत्र तदेकत्ववि - तर्कमविचारि च ॥ ( लोकप्र. ३०, ४८६ - ६० ) । २ मोहकर्म का समूल नाश करने का इच्छुक होकर अनन्तगुणी विशुद्धि सहित योगविशेष के द्वारा ज्ञानावरण की सहायक बहुतसी प्रकृतियों के बन्ध का निरोध और उनकी स्थिति के ह्रास व क्षय का करने वाला, श्रुतज्ञानोपयोग से सहित तथा अर्थ, व्यञ्जन और योग की संक्रान्ति-रहित जो केवल एक द्रव्य, गुण या पर्याय का चिन्तवन करता है - ऐसे क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती मुनिके जो निश्चल शुक्लध्यान होता है उसे एकत्ववितर्कावीचार ध्यान कहते हैं । एकत्वानुप्रेक्षा- देखो एकत्वभावना । १. सयणस्स परियणस्स य म एक्को स्वंतत्रो दुहिदो । वज्जदि मच्चु - वसगदो ण जणो कोई समं एदि । एक्को करेदि कम्मं एक्को डिदि य दीहसंसारे । एक्को जायदि मरदि य एवं चितेहि एयत्तं ॥ ( मूला. ८, ८- ६ ) । २. एक्को करेदि कम्मं एक्को हिंडदि य दीहसंसारे । एक्को जायदि मरदि य तस्स फलं भुंजदे एक्को । एक्को करेदि पावं विसयणिमित्तेण तिव्व लोहेण । णिरय-तिरिएसु जीवो तस्स फलं भुंजदे एक्को । एक्को करेदि पुण्णं धम्मणिमित्तेण पत्तदाणे | मणुव-देवेसु जीवो तस्स फलं भुंजदे एक्को ॥ एक्कोऽहं णिम्ममो सुद्धो णाणदंसणलक्खणो । सुद्धेयत्तमुपादेयमेवं चितेइ संजदो ।। ( द्वादशा. १४-१६ वं २०) । ३. जन्म-जरा-मरणानुवृत्तिमहादुःखानुभवं प्रति एक एवाहं न कश्चिन्मे स्वः परो वा विद्यते । एक एव जायेऽहम् क एव म्रिये, न मे कश्चित् स्वजनः परजनो वा ब्याधि-जरा-मरणादीनि दुःखान्यपहरति, बन्धु-मित्राणि स्मशानं नातिवर्तन्ते धर्ममेव मे सहायः सदा अनुयायीति चिन्तनमेकत्वानुप्रेक्षा ॥ ( स. सि. - ७ ) । ४. एक एवाहं न मेकश्चित् स्वः परो वा विद्यते । एक एवाहं जाये, एक एव म्रिये, न मे कश्चित् स्वजनसंज्ञः परजनसंज्ञो वा, व्याधि-जरा-मरणादीनि दुःखान्यपहरति प्रत्यंशहारी वा भवति, एक एवाहं स्वकृतकर्मफलमनुभवामीति चिन्तयेत् एवं ह्यस्य चिन्तयतः स्वजनसंज्ञकेषु स्नेहा - नुरागप्रतिबन्धो न भवति परसंज्ञकेषु च द्वेषानु
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[ एकबन्धन
बन्धः । ततो निःसङ्गतामभ्युपगते मोक्षायैव यतेत इत्येकत्वानुप्रेक्षा । ( त. भा. 8-७ ) । ५. इक्को जीवो जायदि एक्को गन्भम्हि गिरहदे देहं । इक्को बाल- जुवाणो इक्को बुड्ढो जरागहिश्रो ॥ इक्को रोई सोई इक्को तप्पेइ माणसे दुक्खे । इक्को मरदि वराम्रो णरय-दुहं सहदि इक्को वि । इक्को संचदि
एक्को भुंजेदिविहि- सुर- सोक्खं । इक्को खवेदि कम्मं इक्को विपायए मोक्खं । सुयणो पिच्छंतो विहु ण दुक्खलेसं पिसक्कदे गहिदु । एवं जाणंतो विहु तोपि ममत्तं ण छंडेइ ।। ( कार्तिके. ७४-७७)। ३ जन्म, जरा और मरण रूप महान् दुःख का सहने वाला मैं एक ही हूं - इसके लिये न मेरा कोई स्व है और न पर भी है; मैं श्रकेला ही जन्म लेता हूं और अकेला ही मरता हूं— कोई भी स्वजन और परजन मेरे रोग, जरा एवं मरण श्रादि के कष्ट को दूर नहीं कर सकता है; बन्धुजन व मित्रजन अधिक से अधिक स्मशान तक जाने वाले हैं - श्रागे कोई भी साथ जाने वाला नहीं है; हां धर्म एक ऐसा अवश्य है जो मेरे साथ जाकर भवान्तर में भी सहायक हो सकता है; इत्यादि प्रकार निरन्तर विचार करना, इसका नाम एकत्वानुप्रेक्षा है । एकदेशच्छेद - निर्विकल्पसमाधिरूप सामायिकस्यैकदेशेन च्युतिरेकदेशच्छेदः । (प्र. सा. जय. वृ. ३-१० ) । निर्विकल्प समाधिरूप सामायिक के एक अंश के विनाश को एकदेशच्छेद कहते हैं । एकपादस्थान - एगपादं एगेन पादेनावस्थानम् । ( भ. प्रा. विजयो. २२३) । एक पैर से स्थित होकर तपश्चरण करना, इसका नाम एकपाद ( कायक्लेशविशेष) है । एकप्रत्यय ( ज्ञान ) - १. एकाभिधान - व्यवहारनिबन्धनः प्रत्यय एकः । (धव. पु. ६, पृ. १५१ ) ; एकार्थविषय: प्रत्ययः एकः ( अवग्रहः ) | ( धव. पु. १३, पृ. २३६ ) । २. बह्न व्यक्तिविज्ञानं बह्न कं चक्रमाद्यथा । (श्रा. सा. ४-१७ ) । जो प्रत्यय एक नाम और व्यवहार का कारण होता है वह एकप्रत्यय कहलाता है । एकबन्धन - छण्णं जीवणिकायाणं सरीरसमवाश्रो एयबंधणं णाम । ( धव. पु. १४, पृ. ४६१) । पृथिवीकायिकादि छह जीवसमूहों के शरीरसमवाय का नाम एकबन्धन है ।
२९४, जैन-लक्षणावली
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