Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 401
________________ ऋषि] २६२, जैन-लक्षणावली [एकत्ववितर्कावीचार य कीलिमा वज्जं। (संग्रहणी सू व. ११७)। पयोग कहते हैं। ४. यत्पुनः कीलिकारहितं संहननं तत् ऋषभनारा- एकत्वप्रत्यभिज्ञान-१. दर्शन-स्मरणकारणकं संकचम् । (प्रज्ञाप. मलय. व. २३-२६३; जीवाजी. लनं प्रत्यभिज्ञानम् ।। तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं मलय. वृ.१-१३, सप्तति. मलय. व. पु. १५१; तत्प्रतियोगीत्यादि । यथा स एवायं देवदत्तः ॥ संग्रहणी दे. वृ. ११७)। गोसदशो गवयः।। गोविलक्षणो महिषः॥ इदमस्माद् १ कीलिका रहित संहनन को ऋषभनाराच- दूरम् ।। वृक्षोऽयमित्यादि ।। (परीक्षामुख ३, ५ से संहनन कहते हैं। १०)। २. अनुभव-स्मृतिहेतुकं संकलनात्मकं ज्ञानं ऋषि-१. ऋषयः ऋद्धिप्राप्ताः, ते चतुविधा:- प्रत्यभिज्ञानम्। xxx यथा स एवायं जिनदत्तः, राज-ब्रह्म-देव-परमभेदात् । तत्र राजर्षयो विक्रिया- xxx गोसदशो गवयः, गोविलक्षणो महिष क्षीद्धिप्राप्ता भवन्ति, ब्रह्मर्षयो बुद्धयौषधि ऋद्धि- इत्यादि । अत्र हि पूर्वस्मिन्नुदाहरणे जिनदत्तस्य युक्ता कीर्त्यन्ते, देवर्षयो गगनगमनद्धिसंयुक्ता कथ्य- पूर्वोत्तरदशाद्वयव्यापकमेकत्वं प्रत्यभिज्ञानस्य विषयः। न्ते, परमर्षयः केवलज्ञानिनो निगद्यन्ते । (चारित्रसार तदिदमेकत्वप्रत्यभिज्ञानम् । (न्यायदी. ३, पृ. ५६)। पृ. २२) । २. रेषणात्क्लेशराशीनामृषिमाहुर्मनीषि- १ प्रत्यक्ष और स्मृति के निमित्त से जो संकलनाणः। (उपासका. ८६१)। त्मक (जोड़रूप) ज्ञान उत्पन्न होता है उसे प्रत्य१ ऋद्धिप्राप्त साधुओं को ऋषि कहते हैं, जो चार भिज्ञान कहते हैं । जो प्रत्यभिज्ञान 'यह वही है इस प्रकार के हैं-१ राषि-विक्रिया व अक्षीण- प्रकार से पूर्व व उत्तर दशाओं में व्याप्त रहने वाले ऋद्धिप्राप्त ऋषि । २ ब्रह्मर्षि-बुद्धि व प्रौषधि- एकत्व (अभेद) को विषय करता है वह एकत्वऋद्धिप्राप्त ऋषि । ३ देवषि-पाकाशगमन ऋद्धि प्रत्यभिज्ञान कहलाता है। से युक्त ऋषि । ४ परमषि-केवलज्ञानी। एकत्वभावना-देखो एकत्वानुप्रेक्षा। एकाक्येव एकक्षेत्रस्पर्श-१. जं दव्वमेयवेत्तेण पुसदि सो जीव उत्पद्यते, कर्माणि उपार्जयति, भुङ्क्ते चेत्यादि सम्वो एयक्खेत्तफासो णाम । (ष. खं. ५, ३, १४- चिन्तनमेकत्वभावना (सम्बोधस.व. १६.प.१८)। पु. १३, पृ. १६) । २. एक्कम्हि आगासपदेसे ट्ठिद- जीव अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेला ही कर्मों अणंताणंतपोग्गलक्खंधाणं समवाएण संजोएण वा । का उपार्जन करता है, और अकेला ही उन्हें भोगता जो फासो सो एयक्खेत्तफासो णाम । बहुप्राणं वव्वा- है; इत्यादि विचार करने का नाम एकत्वभावना णं अक्कमेण एयक्खेत्तपुसणदुवारेण वा एयक्खेत्त- है। फासो वत्तव्यो। (धव. पु. १३, पृ. १६)। एकत्वविक्रिया-तत्रैकत्वविक्रिया स्वशरीरादपृथ२ एक आकाशप्रप्रदेश में स्थित अनन्तानन्त पुद्गल- ग्भावेन सिंह-व्याघ्र-हंस-कररादिभावेन विक्रिया । स्कन्धों के समवाय अथवा संयोग से जो परस्पर (त. वा. २, ४७, ६)। स्पर्श होता है, इसे एकक्षेत्रस्पर्श कहते हैं। बहुत अपने शरीर से अभिन्न सिंह-व्याघ्रादिरूप विक्रिया द्रव्यों का एक साथ एक-क्षेत्रस्पर्श के द्वारा जो के करने को एकत्वविक्रिया कहते हैं। परस्पर स्पर्श होता है उसे भी एक-क्षेत्रस्पर्श कहा एकत्ववितर्कावीचार-१. जेणेगमेव दव्वं जोगेजाता है। णेक्केण अण्णदरएण । खीणकसानो झायइ तेणेयत्तं एकक्षेत्रावधिज्ञानोपयोग-१. श्रीवृक्ष-स्वस्तिक- तगं भणिदं । जम्हा सुदं बितक्कं जम्हा पुव्वगयनन्द्यावर्ताद्यन्यतमोपयोगोपकरण एकक्षेत्रः । (त. वा. प्रत्थगयकूसलो। झायदि झाणं एवं सविदक्कं तेण १-२२, पृ. ८३, पं. २५-२६)। २. जस्स अोहि- तं ज्झाणं ॥ अत्थाण वंजणाण य जोयाण य संकमो णाणस्स जीवसरीरस्स एगदेसो करणं होदि तमो- द वीचारो। तस्स प्रभावेण तगं झाणमवीचारमिदि हिणाणमेगवखेत्तं णाम । (धव. पु. १३, पृ. २६५)। वुत्तं ॥ (भ. पा. १८८३-८५ धव. पु. १३, पृ. १ जिस अवधिज्ञान के उपयोग का श्रीवृक्ष, स्वस्तिक ७६ उद.) । २. स एव पुनः समूलतूलं (त. वा.व नन्द्यावर्त प्रादि चिह्नों में से कोई एक उपकरण सतूलमूलं) मोहनीयं निदिधक्षन् अनन्तगुणविशुद्धिहोता है उसे एकक्षेत्र-अवधि या एकक्षेत्रावधिज्ञानो- योगविशेषमाश्रित्य बहतराणां ज्ञानावरणसहायी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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