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एकभक्त] २६५, जैन-लक्षणावली
[एकविधावग्रह एकभक्त-१उदयत्थमणे काले णालीतियवज्जिय- ष्ठेत्, सुष्ठु प्राणिहितचित्तश्चतुर्विधोपसर्गसहो न म्हि मज्झम्हि । एकम्हि दुअ तिए वा मुहत्तकालेय- चलेन्न पतेत् यावत् सूर्य उदेति, सैषा एकरात्रिकी भत्तं तु ।। (मूला. १-३५)। २. उदयकालं नाडी- भिक्षुप्रविमा । (भ. प्रा. विजयो. ४०३, मूलारा. त्रिकप्रमाणं वर्जयित्वा अस्तमनकालं च नाडीत्रिक- ४०३)। प्रमाणं वर्जयित्वा शेषकालमध्ये एकस्मिन् महतद्वयो- जो तीन उपवास करके चौथी रात्रि में ग्राम-नगरादि मुहूर्तयोस्त्रिषु वा मुहूर्तेषु यदेतदशनं तदेकभक्तसंज्ञ- के बाहिर किसी भी स्थान में अथवा स्मशान में कं व्रतमिति । xxx अथवा नाडीत्रिकप्रमाणे पूर्वाभिमुख, उत्तराभिमुख अथवा जिनचैत्याभिमुख उदयास्त मन काले च वजिते मध्यकाले त्रिषु मुहूर्तेषु होकर पांवों के बीच चार अंगुल प्रमाण अन्तर भोजनक्रियाया या निष्पत्तिस्तेदकभक्तमिति । अथवा रखते हुए नासिका पर दृष्टि रख कर स्थित अहोरात्रमध्ये द्वे भक्तवेले, तत्र एकस्यां भक्तबेला होता है व शरीर से निर्ममत्व होकर प्राणिहित में याम् आहारग्रहणमेकभक्तमिति । (मूला. वृ. १-३५)। निमग्न होता हुआ चारों प्रकार के उपसर्ग को सहता ३. उदयास्तोभयं त्यक्त्वा त्रिनाडीभॊजनं सकृत् । है तथा सूर्य का उदय होने तक निश्चलतापूर्वक एक-द्वि-त्रिमहर्त स्यादेकभक्तं दिने मूनेः। (प्राचा. उसी प्रकार से स्थित रहता है, वह एकरात्रिकी सा. १-४७)।
भिक्षुप्रतिमा का निर्वाहक होता है। २ उदय और प्रस्तमनकाल सम्बन्धी तीन-तीन नाड़ी एकविध प्रत्यय-१. एकजातिविषयत्वादेतत-(बह(घटिका) प्रमाण काल को छोड़ कर शेष काल में विध-) प्रतिपक्षः प्रत्ययः एकविधः। (धव. पु.६, एक, दो अथवा तीन महों में भोजन करना एक- पृ. १५२); एकजातिविषयः प्रत्ययः एकविधः। भक्त कहलाता है। अथवा उदय व अस्तमन (धव. पु. १३, पृ. २३७)। २. बह्व कजातिविज्ञानं सम्बन्धी तीन घटिकामों को छोड़कर मध्य के तीन स्याद् बह कविधं यथा। वर्णा नृणां बहुविधाः महतों में भोजनक्रिया के करने को एकभक्त कहते गौर्जात्येकविधेति च ।। (प्राचा. सा. ४-१५)। हैं। अथवा दिन-रात में दो बार भोजन किया १ जो ज्ञान बहत जातिभेदों को विषय करने वाले जाता है, उसमें एक ही बार भोजन करना, इसे बहुविधप्रत्यय से पृथक् होकर एक ही जाति के एकभक्त कहा जाता है।
पदार्थ को ग्रहण करता है, उसे एकविध प्रत्यय कहा एकभिक्षानियम (क्षुल्लक)-१. जइ एवं ण जाता है। रएज्जो काउंरिसगिहम्मि चरियाए । पविसत्ति एय- एकविध बन्ध- एकस्या: सातवेदनीयलक्षणाया:
प्रकृतेर्बन्धः एकविधबन्धः। (शतक दे. स्वो.ब. ३०६)। २. यस्त्वेकभिक्षानियमो गत्वाऽद्यादनुमुन्य- २२)। सौ। भुक्त्यभावे पुनः कुर्यादुपवासमवश्यकम् ।। (सा. एक मात्र सातावेदनीय प्रकृति के बन्ध को एकविध ध. ७-४६); एकस्यां एकगृहसम्बन्धिन्यां भिक्षायां बन्ध कहते हैं। नियमः प्रतिज्ञा यस्य स एकभिक्षानियमः । (सा. ध. एकविधावग्रह- १. एयपयारग्गहणमेयविहावग्गस्वो. टी. ७-४६)।
हो।xxxएगजाईए ट्ठिदएयस्स बहूण वा गह२ एक ही घर पर भिक्षा के नियम वाले क्षुल्लक णमेयविहावग्गहो । (धव. पु. ६, पृ. २०)। २. को एकभिक्षानियम वाला क्षुल्लक कहते हैं। यह अल्पविशद्धिश्रोत्रेन्द्रियादिपरिणामकारण मात्मा मनियों के प्राहार करने के अनन्तर भिक्षार्थ नगर ततादिशब्दानामेकविधावग्रहणादेकविधमवगृह्णाति । में जाता है और एक ही घर में प्राहार ग्रहण (त. वा. १, १६, १६)। ३. एकजातिग्रहणमेककरता है व भोजन के प्रभाव में उपवास करता है। विधाबग्रहः। (मला. व. १२-१८७) एकरात्रिको भिक्षुप्रतिमा - उपवासत्रयं कृत्वा १ एक प्रकार के पदार्थ के जानने का नाम एकचतुर्थ्या रात्री ग्राम-नगरादेर्बहिर्देशे श्मशाने वा विधावग्रह है। वह एक जाति का पदार्थ चाहे एक प्राङ्मुखः उदङ्मुखश्चैत्याभिमुखो भूत्वा चतुरंगुल- हो चाहे बहुत हों, उसका ज्ञान एकविधावग्रह ही मात्रपदान्तरो नासिकाग्रनिहितदृष्टिस्त्यक्तकायस्ति- कहलाता है।
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