Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 390
________________ उपार्घपुद्गलपरावर्त] २८१, जैन-लक्षणावली [उपासकदशा इति चिन्तनमुपायविचयं द्वितीयं धर्म्यम् । (कार्तिके. शेष साधुओं को अपने दुश्चरित्र से कलंकित मत टी. ४८२)। करो तथा अपने निर्मल अनुष्ठान में मोह को प्राप्त १ पुण्यक्रियाओं का-मन, वचन व काय की शुभ न होओ, इत्यादि प्रकार से शिक्षा देने का नाम प्रवृत्तियों का-प्रात्मसात् करना, इसका नाम उपाय उपालम्भ है। है । वह उपाय मुझे किस प्रकार से प्राप्त हो, इस उपासकदशा-१. से कि तं उवासगदसायो ? प्रकार के चिन्तन को उपायविचय (धर्म्यध्यान का उवासगदसासू णं समणोवासयाणं नगराई उज्जाणाई एक भेद) कहते हैं। ३ जो लोग दर्शनमोह के उदय चेइयाई वणसंडाइं समोस रणाइं रायाणो अम्मासे सन्मार्ग से पराङ्मुख हो रहे हैं उन्हें सन्मार्ग की पियरो धम्मायरिया धम्मकहानो इहलोइन-परप्राप्ति कैसे हो, इस प्रकार के चिन्तन को उपाय- लोइया इढिविसेसा भोगपरिच्चाया पव्वज्जाओ विचय कहा जाता है। परिपागा सूअपरिग्गहा तवोवहाणाई सीलउपार्धपुद्गलपरावर्त -१. उपार्धपूद्गलपरावर्तस्तु व्वय-गुण-वेरमण पच्चक्खाण-पोसहोववासपडिवज्जणकिंचिन्यूनोऽर्धपुद्गलपरावर्त इति। (श्रा. प्र. टी. या पडिमानो उवसग्गा संलेहणायो भत्तपच्चक्खा७२) । २. ऊणस्स अद्धपोग्गलपरियट्टस्स उवड्ढ- णाई पायोवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुलपच्चापोग्गल मिदि सण्णा। उपशब्दस्य हीनार्थवाचिनो याईयो पूणबोहिलाभा अंतकिरियानो अ प्राविगृहणात् । (जयध. २, ३६१)। ज्जति । उवासगदसासु णं परित्ता वायणा संखेज्जा १ कुछ कम अर्ध पुद्गलपरिवर्तनकाल को उपाध- अणुप्रोगदारा संखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखेपुद्गलपरावर्त कहते हैं। ज्जाम्रो निज्जुत्तीनो संखेज्जाबो संगहणीमो संखेउपार्धावमौदर्य-उपार्धावमौदर्य द्वादश कवलाः, ज्जारो पडिवत्तीयो । से णं अंगट्ठयाए सत्तमे अंगे एगे अर्धसमीपमुपाध, द्वादश कवलाः, यतः कवलचतुष्टय- सुअक्खंधे दस अज्झयणा दस उद्देसणकाला दस समुप्रक्षेपात संपूर्णमधं भवति । (त. भा. हरि. व सिद्ध. हे सणकाला संखेज्जा पयसहस्सा पयग्गेण संखेज्जा वृ.८-१९)। अक्खरा अणंता गमा अणंता पज्जवा परित्ता तसा बारह ग्रास प्रमाण आहार के लेने को उपार्धावमौ- अणंता थावरा सासयकडनिबद्धनिकाइमा जिणपन्नदर्य कहते हैं। कारण कि वह प्राधे के समीप है- त्ता भावा प्राविज्जति पन्नविज्जति परूविज्जति (३२-४=१२)। दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति । से एवं पाया उपाधौनोदर्य-देखो उपाविमौदर्य । अर्धस्य एवं नाया एवं विन्नाया एवं चरण-करणपरूवणा समीपमुपार्घ द्वादशकवलाः, यतः कवलचतुष्टयप्रक्षे- आपविज्जइ । से तं उवासगदसायो। (नन्दी. सू. पात् सम्पूर्णमधं भवति, ततो द्वादशकवला उपाधौं- ५१, पृ. २३२) । २. उपासकाः श्रावकाः, तद्गतनोदर्यम् । (योगशा. स्वो. विव. ४-८६)। क्रियाकलापनिबद्धा दशा: दशाध्ययनोपलक्षिताः उपादेखो उपार्धावमौदर्य। सकदशाः । (नन्दी . हरि. व. पृ. १०४) । ३. उपाउपालम्भ...--१. प्रामफलाणि न कप्पति तुम्ह मा सकैः श्रावकैरेवं स्थातव्यमिति येष्वध्ययनेषु दशसु सेसए वि दूसेहिं । मा य सकज्जे मुज्झसु एमाई होउ- वर्ण्यते ता उपासकदशाः । (त. भा. हरि. व सिद्ध. व. वालंभो।। (बृहत्क. ८६६)। २. प्रामफलानि युष्माकं १-२०)। ४. उपासका: श्रावका:, तद्गताणुव्रतादिगृहीतुंन कल्पन्ते, अतः शेषानपि साधून मा दूषय- क्रियाकलापप्रतिबद्धा दशा अध्ययनानि उपासकनिजदुश्चरितेन मा कलङ्कितान् कूरु, मा च स्वकार्ये __ दशाः। (नन्दी. मलय. व. ५१, पृ. २३२)। निरवद्यप्रवृत्त्यात्मके चारित्रे मुहः, इत्येवमादिकः स- १ जिस अंग में श्रमणों के उपासक श्रावकों के नगर पिपासशिक्षारूषः उपालम्भो भवति । (बृहत्क. क्षेम. व उद्यान आदि के साथ शीलवत, गुणवत, प्रत्याकृ. ८६९); उपालम्भः सपिपासवचनैः शिक्षा। ख्यान और पौषधोपवास के ग्रहण की विधि का (बृहत्क. क्षे. वृ. ८९६)। विवेचन हो तथा प्रतिमा, उपसर्ग, संलेखना, भक्तकच्चे फलों का लेना तुम्हें योग्य नहीं है, इससे तुम प्रत्याख्यान, प्रायोपगमन और देवलोकगमन प्रादि की ल. ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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