Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 393
________________ उभयश्रुत] २८४, जैन-लक्षणावली [उष्ण उभयश्रुत-जे सुयबुद्धिद्दि? सुयमइसहिरो पभा- ननुगामि अवधिज्ञान कहते हैं। सई भावे। तं उभयसुयं भन्नइ दव्वसुयं जे अणुव- उभयानन्त-जंतं उभयाणंतं तं तधा चेव उभयउत्तो ॥ (विशेषा. गा. १२९)। दिसाए पेक्खमाणे अंताभावादो उभयदेसाश्रतबद्धि से दृष्ट-पर्यालोचित पदार्थों को जो श्रत- उभया-णंतं । (धव. पु.३, पृ. १६)। मति सहित कहता है वह उभयश्रुत कहलाता है। मध्य से दोनों ओर देखने पर प्राकाशप्रदेशों की उभयसारी (पदानुसारी)-देखो उभयपदानु- पंक्ति का अन्त चूंकि देखने में नहीं आता है, इसीसारी। १.णियमेण अणियमेण य जगवं एगस्स बीज- लिए उसे उभयानन्त कहा जाता है। सद्दस्स । उवरिमहेट्ठिमगंयं जा बुज्झइ उभयसारी उभयानुगामी- यत्स्वोत्पन्नक्षेत्र-भवाभ्यामन्यस्मिन् सा ॥ (ति. प. ४-९८३)। २. दोपासट्ठियपदाइं भरतरावत-विदेहादिक्षेत्रे देव-मनुष्यादिभवे च वर्तणियमेण, विणा णियमेण वा जाणती उभयसारी मानं जीवमनुगच्छति तदुभयानुगामि । (गो. जी. णाम । (धव. पु. ६, पृ.६०)। म. प्र. व जी. प्र. टी. ३७२)। २ मध्य में स्थित किसी एक पद को सुन कर दोनों जो अवधिज्ञान अपने उत्पन्न होने के क्षेत्र से भरपावों में स्थित पदों के नियम या अनियम से तादि क्षेत्रान्तर में, तथा भव से देवादि भवान्तर में जानने को उभयसारी ऋद्धि कहते हैं। साथ जाता है, उसे उभयानुगामी अवधिज्ञान उभयस्थित-उभयस्थितं कुम्भी-कोष्ठिकादिस्थं कहते हैं। पाष्र्युत्पाटनाद् बाहप्रसारणाच्च । (धर्मसं. मान. उभयासंख्यात-जं तं उभयासंखेज्जयं तं लोयायास्वो. वृ. ३-२२, पृ. ४०)। सस्स उभयदिसाओ, ताओ पेक्खमाणे पदेसगणणं कुम्भी (घटिका) अथवा कोष्ठिका (मिट्टी से बना पडुच्च संखाभावादो। (धव. पु. ३, पृ. १२५)। बड़ा पात्र--कुठिया) में से भोज्य वस्तु को निकाल लोकाकाश की दोनों दिशामों की प्रोर देखने पर कर देना, यह उभयस्थित-ऊधिःस्थित-माला- चंकि अाकाशप्रदेशों की गणना करना सम्भब नहीं पहृत नामक उद्गमदोष है। है, अतएव इसे संख्या का प्रभाव होने से उभयाउभयाक्षरलब्धि-एगत्थे उवलद्धे कम्मि वि उभ- संख्यात कहा जाता है। यत्थ पच्चो होइ। अस्सतरि खरऽस्साणं गुल-दहि- उल्का (उक्का)-जलंतग्गिपिंडो व्व अणेगसंठाणेहि याणं सिहरिणीए ।। (बृहत्क. ५१)। .. आगासादो णिवदंता उक्का णाम । (धव. पु. १४, उभयगत धर्म से संयुक्त अथवा उभय के अवयव- पृ. ३५) । युक्त किसी एक पदार्थ के उपलब्ध (प्रत्यक्ष) होने जलते हुए अग्नि-पिण्ड के समान जो आकाश से पर जो परोक्षभूत उभय पदार्थों से सम्बद्ध अक्षरों का अनेक प्राकारों वाला पुद्गलपिण्ड भूमि को पोर बोध होता है, वह उभयाक्षरलब्धिश्रुत कहलाता है। गिरता है, उसे उल्का कहते हैं । जैसे-खच्चर के देखने पर उभयगत सदृश धर्म के उवसन्नासन्न-तेखो अवसन्नासन्निका, अवसंज्ञावश परोक्षभूत गधा और घोड़ा से सम्बद्ध अक्षरों संज्ञा और उच्छ्लक्ष्णश्लक्ष्णिका। परमाणूहिं अणंका बोध, अथवा शिखरिणी (श्रीखण्ड) के उपलब्ध ताणतेहिं बहविहेहि दवे हि । उवसण्णासण्णी त्ति होने पर उभयगत अवयवों के योग से दही और य सो खंधो होदि णामेण ॥ (ति. प.१-१०२)। गुड़ का बोध । अनन्तानन्त बहुत प्रकार के परमाणुओं के पिण्ड का उभयाननुगामी-यत्क्षेत्रान्तरं भवान्तरं च न नाम उवसन्नासन्न है। गच्छति, स्वोत्पन्नक्षेत्र-भवयोरेव विनश्यति तदुभया- उष्ण-१. मार्दवपाककृदुष्णः। (अनुयो. हरि. वृ. ननुगामि । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. ३७२)। प. ६०; त. भा. सिद्ध. वृ. ५-२३) । २. प्राहारजो अवधिज्ञान जिस क्षेत्र और भव में उत्पन्न होता पाकादिकारणं ज्वलनाद्यनुगत उष्णः । (कर्मवि. दे. है उस क्षेत्र से क्षेत्रान्तर को, तथा भव से भवान्तर स्वो. बु. ४०, पृ. ५१)। ३. उषति दहति जन्तुमिति को साथ नहीं जाता है, किन्तु अपने उत्पन्न होने के उष्णम् । (उत्तरा. नि. शा. वृ. ४-५७, पृ. १८)। क्षेत्र और भव में ही नष्ट हो जाता है, उसे उभया- २ जो अग्नि प्रावि से अनुगत स्पर्श आहार आदि के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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