Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 395
________________ उष्णस्पर्शनाम] २८६, जैन-लक्षणावली [ऊर्ध्व लोक पुद्गलों के समुदाय को उष्ण योनि कहते हैं। तस्यां वा व्रतं ऊर्ध्वदिग्वतम्, एतावती दिगूर्व पर्वउष्णस्पर्शनाम-यदुदयाज्जन्तुशरीरं हुतभुजादि- ताद्यारोहणादवगाहनीया, न परतः । (प्राव. वृ.प्र. वदुष्णं भवति तदुण्णस्पर्शनाम । (कर्म वि. दे. स्वो. ६, पृ. ८२७; श्रा. प्र. टी. गा. २८०)। वृ. ४, पृ. ५१)। १ऊध्वं (पर्वत प्रादि) दिशा सम्बन्धी प्रमाण का जिसके उदय से प्राणी का शरीर अग्नि के समान जो नियम किया जाता है, उसे ऊर्ध्वदिग्वत कहते हैं। उष्ण होता है उसे उष्णस्पर्श नामकर्म कहते हैं। ऊर्ध्वप्रचय-१. समयविशिष्ट वृत्तिप्रचयस्तदूर्ध्वप्रचऊर्ध्वकपाट (उड्ढकवाड)-ऊवं च तत् कपाटं यः । xxx ऊर्ध्वप्रचयस्तु त्रिकोटिस्पर्शित्वेन च ऊर्ध्वकपाटम् । ऊर्ध्व कपाटमिव लोक: ऊर्ध्व- सांशत्वाद् द्रव्यवृत्तेः सर्वद्रव्याणामनिवारित एव । कपाटलोकः। जेण लोगो चोइसरज्जुउस्सेहो, सत्त- अयं तु विशेष:-समयविशिष्टवत्तिप्रचयः शेषद्रव्यारज्जुरुंदो, मज्झे उवरिमपेरंते च एगरज्जुबाहल्लो, णामूर्ध्वप्रचय: समयप्रचय एव कालस्योर्ध्वप्रचयः । उवरि बम्हलोगुद्दे से पंचरज्जुबाहल्लो, मूले सत्तर- (प्रव. सा. अमृत. वृ. २-४६)। २. प्रतिसमयवार्तिनां ज्जुबाहल्लो, अण्णत्थ जहाणुबढिबाहल्लो; तेण पूर्वोत्तरपर्यायाणां मुक्ताफलमालावत्सन्तान: ऊर्ध्वप्रउड्ढट्ठियकवाडोवमो। (धव. पु. १३, पृ. ३७६)। चय इत्यूर्ध्वसामान्य मित्यायतसामान्यमिति क्रमानेकालोक चूंकि चौदह राजु ऊँचा, सात राजु विस्तार- न्त इति च भण्यते । (प्रव. सा. ज. वृ. २-४६)। वाला तथा मध्य व उपरिम भाग में एक राजु, १ समयसमूह का नाम ऊर्ध्वप्रचय है। चूंकि प्रत्येक ऊपर ब्रह्मलोक के पास पांच राजु और नीचे सात द्रव्य परिणमनशील होने से प्रत्येक समय में पूर्व राज बाहल्य वाला है, अतएव उसे ऊर्ध्वस्थित कपाट पर्याय को छोड़कर नवीन पर्याय से परिणत हुआ के समान होने से ऊर्ध्वकपाट कहा जाता है। करता है, अतएव यह ऊर्ध्वप्रचय छहों द्रव्यों के ऊर्ध्वतासामान्य-१. परापरविवर्तव्यापि द्रव्य- पाया जाता है। इतना विशेष है, काल को छोड़. मूवता मृदिव स्थासादिषु । (परीक्षामुख ४-५)। कर अन्य पांच द्रव्यों का ऊर्ध्वप्रचय जहां समयवि२. ऊर्ध्वतासामान्यं क्रमभाविषु पर्यायेष्वेकत्वान्वय- शिष्ट है, वहां कालद्रव्य का वह मात्र समयरूप ही प्रत्ययग्राह्य द्रव्यम् । (युक्त्यनु. टी. १-३६, पृ. है, कारण कि काल के परिणमन में अन्य कोई १०)। ३. पूर्वापरपरिणामसाधारणं द्रव्यमूर्खता- कारण नहीं है, जबकि अन्य द्रव्यों के परिणमन में सामान्यं कटक-कंकणाद्यनुगामिकांचनवत् । (प्र. न. काल कारण है। त. ५-५)। ४. यत्परापरपर्यायव्यापि द्रव्यं तदू- ऊर्ध्वरेण-१. अट्टसण्हसण्हियानो सा एगा उडढख़ता। मद्यथा स्थास-कोशादिविवर्तपरिवर्तिनी ॥ रेण । (भगवती ६-७, प. ८२) । २. ऊद्धमहस्ति(प्राचा. सा. ४-४)। ५. ऊर्ध्वतासामान्यं च परा- र्यक् स्वत: परतो वा प्रवर्तते इति ऊर्ध्वरेणुः । (अनुपरविवर्तव्यापि मृत्स्नादिद्रव्यम् । (रत्नाकराव. ३-५; यो. चू. ६६-१६०, पृ. ५४) । ३. अष्टौ श्लक्ष्णनयप्र. पृ. १००)। ६. ऊर्ध्वमुल्लेखिनाऽनुगताकार- श्लक्षिणका ऊर्ध्वमस्तिर्यग् वा कथमपि चलन् यो प्रत्ययेन परिच्छिद्यमानमूर्खतासामान्यम् । (रत्ना- लभ्यते, न शेषकालं स ऊर्ध्वरेणुः। (ज्योतिष्क. कराव. ५-३) । ७. ऊर्ध्वतादिसामान्यम् पूर्वापर- मलय.व. २-७८)। ४. तत्र जालप्रविष्टसूर्यप्रभागुणोदयम् । (द्रव्या. त. २-४)। ८. ऊर्ध्वतासामा- भिव्यङ्गयः स्वतः परतो वा ऊर्ध्वाधस्तिर्यक् चलनन्यं च पूर्वापरपरिणामे साधारणद्रव्यम् । (स्या. र. धर्मा रेणुरूर्ध्वरेणुः । (संग्रहणी दे. व. २४६)। कृ. ११)। १ पाठ श्लक्ष्णश्लक्षिणकाओं के समुदाय को ऊर्ध्व१ पूर्वापरकालभावी पर्यायों में व्याप्त रहने वाले द्रव्य रेणु कहते हैं। को कुर्वतासामान्य कहते हैं। जैसे-उत्तरोत्तर ऊर्ध्व लोक-१. उवरिमलोयायारो उब्भियमरवेण होने वाली स्थास, कोश व कुशूल आदि पर्यायों में होइ सरिसत्तो। (ति. प. १-१३८) । २. उरि सामान्यरूप से अवस्थित रहने वाला मृद् (मिट्टी) पुण मुरयसंठाणो। (पउमच. ३-१६, पृ. ६)। द्रव्य। ३. ऊर्ध्वलोकस्तु मृदङ्गाकारः। (प्राव. ह. व. मल. ऊर्ध्वदिग्वत-ऊर्ध्वा दिग् ऊर्ध्वदिग्, तत्सम्बन्धि हेम. टि. ६४) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446