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उदयबन्धोत्कृष्ट ]
उदय से उत्पन्न होने वाली श्रदारिक वर्गणाओं की श्रदारिकशरीररूप श्रवस्था । उदयबन्धोत्कृष्ट - १. उदयकालेऽनुभूयमानानां स्वबन्धादुत्कृष्टं स्थितिसत्कर्म यासां ता उदयबन्धोत्कृष्टाभिधानाः । (पंचसं. स्वो वृ. ३-६२, पृ. १५१ ) । २. यासां प्रकृतीनां विपाकोदये सति बन्धादुत्कृष्टं स्थितिसत्कर्मावाप्यते ता उदयबन्धोत्कृष्टसंज्ञाः । (पंचसं. मलय. वृ. ३-६२, पू. १५२; कर्मप्र. यशो. टी. १, पृ. १५) ।
१ उदयकाल में अनुभूयमान जिन कर्मप्रकृतियों का स्थितिसत्त्व बन्ध से उत्कृष्ट पाया जाता है उन्हें उदयबन्धोत्कृष्ट कहते हैं ।
उदयभाव
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अहिकम्पोग्गला संतावत्थातो उदीरणावलियमतिक्रान्ता अप्पणो विपागेण उदयावलियाए वट्टमाणा उदिन्नाओ त्ति उदयभावो भन्नति । ( अनुयो. चू. पू. ४२) ।
आठ प्रकार के कर्मपुद्गलों का सत्त्व अवस्था से उदीरणावली का श्रतिक्रमण कर अपने परिपाक से उदयावली में वर्तमान होते हुए उदय को प्राप्त होना, इसका नाम उदयभाव है । उदयवती - १. चरिमसमयंमि दलियं जासि अण्णत्थ संकमे ताओ । अणुदयवइ इयराम्रो उदयवई होंति पगई । ( पंचसं. ३-६६ ) । २. इतरा: या स्वोदयेन चरमसमये जीवोऽनुभवति ता उदयवत्यः । (पंचसं स्वो वृ. ३-६६, पृ. १५३ ) । ३. इतरास्तु प्रकृतय उदयवत्यो भवन्ति, यासां दलिकं चरमसमये स्वविपाकेन वेदयते । (पंचसं मलय. वृ. ३-६६, पृ. १५३) । ४. यासां च दलिकं चरमसमये स्वविपाकेन वेदयते ता उदयवत्यः । ( कर्मप्र. यशो. टी. १, पृ. १५) । २ जिन कर्म- प्रकृतियों के दलिक का स्थिति के अन्तिम समय में अपना फल देते हुए वेदन किया जाता है उन कर्मप्रकृतियों को उदयवती कहते हैं । उदयसंक्रमोत्कृष्ट - १. उदयेऽन्याभ्यः संक्रमेण उत्कृष्टं स्थितिसत्कर्म यासां ता उदयसंक्रमोत्कृष्टाः । (पंचसं. स्व. वू. ३-६२, पृ. १५१ ) । २. यासां पुनविपाकोदये प्रवर्तमाने सति संक्रमत उत्कृष्टं स्थितिसत्कर्म लभ्यते, न बन्वतस्ता उदयसंक्रमोत्कृष्टाभिधानाः । (पंचसं. मलय. वू. ३-६२, पृ. १५२; ल. ३३
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२५७, जैन - लक्षणावली
[ उदराग्निप्रशमन
कर्मप्र. यशो. टी. १, पृ. १५) । ३. उदये सति संक्रमत उत्कृष्टा स्थितिर्यासां ता उदयसंक्रमोत्कृष्टाः । (पंचसं. मलय. वृ. ५- १४५, पृ. २८४) । २ विपाकोदय के होने पर जिन कर्मप्रकृतियों का संक्रम की अपेक्षा उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म प्राप्त होता है, बन्ध की अपेक्षा नहीं; उन्हें उदय संक्रमोत्कृष्ट कहते हैं । उदयस्थितिप्राप्तक - जं कम्मं उदए जत्थ वा तत्थ वा दिस्सर तमुदयट्ठिदिपत्तयं णाम । ( कसायपा. चू. पृ. २३६; धव. पु. १०, पृ. ११४) ।
जो कर्मप्रदेशाग्र बंधने के अनन्तर जहां कहीं भीजिस किसी भी स्थिति में होकर उदय को प्राप्त होता है, उसे उदयस्थितिप्राप्तक कहते हैं। उदरक्रिमिनिर्गम अन्तराय - XX X स्यादुदरक्रिमिनिर्गमः ॥ उभयद्वारतः कुक्षिक्रिमिनिर्गमने सति । ( न. ध. ५, ५५-५६) ।
भोजन के समय ऊर्ध्व या श्रधोद्वार से पेट में से कृमि के निकलने पर उदरक्रिमिनिर्गम नाम का अन्तराय होता है ।
उदराग्निप्रशमन - १. यथा भाण्डागारे समुत्थितमनलमशुचिना शुचिना वा वारिणा शमयति गृही, तथा यतिरपि उदराग्नि प्रशमयतीति उदराग्निशमनमिति च निरुच्यते । (त. वा. ६, ६, १६, पू. ५६७; त. श्लो. ६-६ ) । २. यथा भाण्डागारे समुत्थितमनलं शुचिनाऽशुचिना वा वारिणा प्रशमयति गृही तथा यथालब्धेन यतिरप्युदराग्नि सरसेन विरसेन वाऽऽहारेण प्रशमयतीत्युदराग्निप्रशमनमिति च निरुच्यते । (चा. सा. पृ. ३६) । ३. भाण्डागार - वदुदरे प्रज्वलितोऽग्निः प्रश [ शा]म्यते येन शुचिना
शुचिना वा जलेनेव सरसेन विरसेन वाशनेन तदुदराग्निप्रशमनमिति प्रसिद्धम् । (अन. ध. स्वो टी. ६-४ε) ।
१ जैसे भण्डार में लगी हुई अग्नि को गृहस्वामी पवित्र या अपवित्र किसी भी जल से बुझाने का प्रयत्न करता है, उसी प्रकार असातावेदनीय कर्म की उदीरणा से उठी हुई उदराग्नि को साधु भी सरस - नीरस आदि किसी भी प्रकार के श्राहार से शान्त करता है, इसलिए उदराग्निप्रशमन यह उसका सार्थक नाम जानना चाहिये ।
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