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उदीरणाकरण]
२५९, जैन-लक्षणावली [उद्दिष्टाहारविरत पृ. १९४); यत्परमाण्वात्मकं दलिकं करणेन योग- भण्यते । (पंचसं. स्वो. वृ. ५-१०२, पृ. २६३) । संज्ञिकेन वीर्यविशेषेण कषायसहितेन असहितेन वा ४. यः पुनस्तस्मिन्नुदये प्रवर्तमाने सति प्रयोगतः उदयावलिकाबहिर्वतिनीभ्यः स्थितिभ्योऽपकृष्य उदये उदीरणाकरणरूपेण प्रयोगेण दलिकमाकृष्यानुभवति दीयते उदयावलिकायां प्रक्षिप्यते एषा उदीरणा। स द्वितीय उदीरणोदयाभिधान उच्यते । (पंचसं. (पंचसं. मलय. वृ. उदी. क. १, पृ. १०६); इह मलय वृ. ५-१०२, पृ. २६३)। प्रथमस्थितौ वर्तमान उदीरणाप्रयोगेण यत्प्रथम- २ जिन कर्मपरमाणुओं का उदयावली के भीतर स्थितेरेव दलिकं समाकृष्योदयसमये प्रक्षिपति सा सर्वथा असत्त्व है उनको अन्तरकरणरूप परिणामउदीरणा। (पंचसं. मलय. वृ. उपश. २०, पृ. विशेष के द्वारा असंख्यात लोकप्रतिभाग से उदीरणा १६३)। १२. कर्मपुद्गलानामकालप्राप्तानामुदया- को प्राप्त कराकर वेदन करना, यह उनका उदोवलिकायां प्रवेशनमुदीरणा।XXX अनुदयप्राप्तं रणोदय है। सत्कर्मदलिकमुदीर्यत उदयावलिकायां प्रवेश्यते यया उदीर्ण-१. फलदातृत्वेन परिणतः कर्मपुदगलस्कसोदीरणा। (कर्मप्र. मलय. वृ. १-२, पृ. १७, धः उदीर्णः। (धव. पु. १२, पृ. ३०३) । २. उदी१८)। १३. अन्तरकरणसत्कं च दलिकमुत्कीर्य णम् उद्भूतशक्तिक मुदयावलिकाप्रविष्टमिति यावत् । प्रथमस्थितौ द्वितीयस्थितौ च प्रक्षिपति । प्रथम- (धर्मसं. मलय. वृ. ७९७)। स्थितौ च वर्तमान उदीरणाप्रयोगेण यत्प्रथमस्थिति- १ फल देने रूप अवस्था में परिणत कर्म-पुद्गलगतं दलिक समाकृष्योदये प्रक्षिपति सा उदी- स्कन्ध को उदीर्ण कहते हैं। रणा। (शतक. दे. स्वो. वृ. ६८, पृ. १२८)। उद्गमशुद्ध उपधिसंभोग-तत्र यत्साम्भोगिकस्सा१४. उदयावलिबाह्यस्थितिस्थितद्रव्यस्यापकर्षणवशा- [सांम्भोगिकेण सममाधाकर्मादिभिः षोडषभिदुदयावल्यां निक्षेपणमुदीरणा। (गो. क. जी. प्र. रुद्गमदोषैः शुद्धमुपधिमुत्पादयति एष उद्गमशुद्ध४३६)।
उपधिसंभोगः । (व्यव. भा. मलय. वृ. ५-५१, पृ. १ अधिक स्थिति व अनभाग को लिये हुए जो कर्म १२)। स्थित हैं उनकी उस स्थिति व अनुभाग को हीन साम्भोगिकका-समान सामाचारी होने के कारण करके फल देने के उन्मुख करना, इसका नाम उदी- सहभोजन-पानादि व्यवहार के योग्य साधु का-प्रसारणा है।
म्भोगिक के साथ प्राधाकर्म प्रादि सोलह दोषों से उदीरणाकरण-देखो उदीरणा। अप्राप्तकाल- रहित उपधि को जो उत्पन्न करना है, यह उदगमकर्मपुद्गलानामुदयव्यवस्थापनमुदीरणाकरणकम्, सा शुद्ध-उपधिसंभोग कहलाता है। चोदयविशेष एव । (पंचसं. स्वो. वृ. ब. क. १, उद्दिष्टत्यागप्रतिमा-उद्दिट्टाहाराईण वज्जण इत्थ पृ. १०६)।
होइ तप्पडिता । दसमासावहिसज्झाय-झाणजोगजिन कर्म पुद्गलों का उदयकाल प्राप्त नहीं हुआ है पहाणस्स ॥ (श्रा. प्र. वि. १०-१६)। उनको उदय में स्थापित करना, इसका नाम उदी. प्रमुखता से स्वाध्याय व ध्यान में उद्यत श्रावक जो रणाकरण है। यह एक उदय की ही विशेष उद्दिष्ट आहार आदि का परित्याग करता है, इसका अवस्था है।
नाम उद्दिष्टत्यागप्रतिमा है। इसकी कालमर्यादा उदीरणोदय-१. अयथाकालविपाक उदीरणोद- दस मास है। यः। (त. वा. ६, ३६, ६)। २. जेसिं कम्मंसाण- उद्दिष्टाहारविरत-देखो उत्कृष्ट श्रावक । १. जो मुदयाबलियभंतरे अंतरकरणेण अच्चंतमसंताणं णवकोडिविसुद्ध भिक्खायरणेण भुंजदे भोज्जं । कम्मपरमाणणं परिणामविसेसेणासंखेज्जलोगपडिभा- जायणरहियं जोग्गं उद्दिट्टाहारविरो सो॥ (कातिगेणोदीरिदाणमणुहवो तेसिमुदीरणोदनो त्ति एसो के. ३६०)। २. उद्दिष्टविनिवृत्तः स्वोद्दिष्टपिण्डोएत्थ भावत्थो। (जयध. ७, पृ ३५६)। ३. अध्य- पधि-शयन-वसनादेविरतः सन्नेकशाटकघरो भिक्षावसायप्रयोगेणोदयावलिकारहितानां स्थितीनां यद्द- शनः पाणि-पात्रपुटेनोपविश्यभोजी रात्रिप्रतिमादितप:लमूदयस्थितौ प्रक्षिप्यानुभवति स उदीरणोदयो समुद्यत आतापनादियोगरहितो भवति । (चा. सा.
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