Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 372
________________ उद्वेलनसंक्रम] २६३, जैन-लक्षणावलो [उपकरण १ इष्टवियोग होने पर विकलता के होने को उद्वेग नम् । (त. वा. ३, ३८, ३) । ३. उन्मीयतेऽनेनोकहते हैं। न्मीयत इति वोन्मानं तुला-कर्षादिसूत्रसिद्धम् । (अनुउद्वेलनसंक्रम-१. उव्वेलणसंकमो णाम करण- यो. हरि. वृ. पृ. ७६)। ४. उन्मीयते तदित्युन्मापरिणामेहि विणा रज्जुव्वेलणकमेण कम्मपदेसाणं नम्, उन्मीयतेऽनेनेति वा उन्मानमित्यादि। (अनुयो. परपयडिसरूवेण संछोहणा । (जयध.-कसायपा. पृ. मल. हेम. वृ. १३२, पृ. १५४) । ३६७, टि. ६) । २. करणपरिणामेन विना कर्मपर- २ जिसके द्वारा ऊपर उठाकर कुष्ठ (प्रोषधिविशेष) माणूनां परप्रकृतिरूपेण निक्षेपणमुद्वेलनसंक्रमणम् । व तगर प्रादि तौले जाते हैं, ऐसी तराजू आदि को (गो. क. जी. प्र. टी. ४१३)। उन्मान कहा जाता है। अधःकरणादि परिणामों के बिना रस्सी के उकेलने उन्मार्गदेशक (उम्मग्गदेसप्र)-नाणाइ अस्तिो के समान कर्मपरमाणों के परप्रकृतिरूप से निक्षेपण तविवरीयं तु उवदिसइ मग्गं । उम्मग्गदेसमो एस को उद्वेलनसंक्रम कहते हैं। प्रायअहिनो परेसिं च ॥ (बृहत्क. १३२२)। उद्वेल्लिम- गंथिम-वाइमादिददाणमवेल्लणेण जो परमार्थभूत ज्ञानादि को दूषित न करता हुआ जाददव्वमवेल्लिमं णाम । (धव. पु.६, पृ. २७३)। उन (ज्ञानादि) से विपरीत मार्ग का उपदेश करता गूंथी गई (जैसे माला प्रादि) और बुनी गई वस्तुओं है उसे उन्मार्गदेशक कहते हैं। के अलग करने (उकेलने) से जो उनकी अवस्था उन्मिश्रदोष-~१. पुढवी आऊ य तहा हरिदा प्रादूर्भूत होती है उसका नाम उद्वेल्लिम है। बीया तसा य सज्जीवा । पंचेहिं तेहिं मिस्सं आहारं उन्मग्ना नदी-णियजलपवाहपडिदं दव्वं गरुवं पि होदि उम्मिस्सं ॥ (मला. ६-५३)। २. स्थावरैः णेदि उवरिस्मि । जम्हा तम्हा भण्णइ उम्मग्गा पृथिव्यादिभिः, त्रसैः पिपीलिका-मत्कुणादिभिः सहिवाहिणी एसा ॥ (ति. प. ४-२३८; त्रि. सा. तोन्मिश्राः । (भ. प्रा. विजयो. टी. २३०, पृ. ४४४)। ५६४)। ३. उन्मिश्रोऽप्रासुकेन द्रव्येण पृथिव्यादिसच्चित्तेन जो नदी अपने जलप्रवाह में गिरे हुए भारी से भारी मिश्र उन्मिश्र इत्युच्यते, तं यद्यादत्ते उन्मिश्र द्रव्य को भी ऊपर ले पाती है उसका नाम शनदोषः। (मला. व. ६-४३)। ४. देयद्रव्यं उन्मग्ना है। खण्डादि सचित्तेन धान्यकणादिना मिश्रं ददत उन्मत्त-१. उन्मत्तो भूतादिगृहीतः। (गु.गु. षट्. उन्मिश्रम् । (योगशा. स्वो. विव. १-३८; धर्मसं. स्वो. व. २२, पृ. ५२)। २. उन्मत्तो भूत-वातादि- मान. स्वो. व. ३-२२, पृ. ४२) । दोषेण वैकल्यमाप्तः । (प्रा. दि. १६, पृ.७४) । १ सजीव पृथिवी, जल, हरितकाय, बीज और त्रस भूत-प्रेतादि से गृहीत (पीड़ित) पुरुष को उन्मत्त इन पांच से मिले हुए आहार को उन्मिश्र दोष कहते हैं । वह दीक्षा के योग्य नहीं होता। (प्रशनदोष) से दूषित कहा जाता है। उन्मत्त दोष-XXX घुर्णनं मदिरातवत् । उपकरण-१. येन निवृत्तरुपकारः क्रियते तदुप(अन. ध.८-११६)। करणम् । (स. सि. २-१७; त. श्लो. २-१७)। मद्य पीकर भ्रान्तचित्त हए मनुष्य के समान भ्रान्ति २. विषयग्गहणसमत्थं उवगरणं इंदियंतरं तं पि । को प्राप्त होना, यह कायोत्सर्ग सम्बन्धी उन्मत्त जं नेह तवघाए गिण्हइ निवित्तिभावे वि।। नाम का दोष है। (विशेषा. ३५६३) । ३. उपकरणं बाह्यमभ्यन्तरं उन्मान-१. से कि तं उम्माणे? जंणं उम्मिणि- च निर्वतितस्यानुपघातानुग्रहाभ्यामुपकारीति । (त. ज्जइ। तं जहा-अद्धकरिसो करिसो पलं अद्धपलं भा. २-१७) । ४. उपक्रियतेऽनेनेत्युपकरणम् । येन अद्धतुला तुला अद्धभारो भारो। दो अद्धकरिसा निर्वत्तेरुपकारः क्रियते तदुपकरणम् । (त. वा. २, करिसो, दो करिसा अद्धपलं, दो अद्धपलाइं पलं, १७, ५, धव. पु. १, पृ. २३६; मूला. वृ. १२, पंचपलसइया तुला, दस तुलाओ अद्धभारो, बीसं १५६)। ५. निर्वतितस्य निष्पादितस्य स्वावयववितुलाप्रो भारो। (अनुयो. सू. १३२, पृ. १५३)। भागेन, निर्वृत्तीन्द्रियस्येति गम्यते, अनुपघातानुग्रहा२. कुष्ठ तगरादिभाण्डं येनोरिक्षप्य मीयते तदुन्मा- भ्याम्पकारीति यदनुपहत्या उपग्रहेण चोपकरोति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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