Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 377
________________ उपघातनिःसृता ] उपघातनिःसृता - १. जं उवधायपरिणम्रो भासइ वयणं अलीग्रमिह जीवो । उवधायणिस्सिया सा XXX ।। (भाषार. ५१ ) ; उपघातपरिणतः पराशुभचिन्तन परिणत इह जगति जीवो यदलीकं वचनं भाषते सा उपघातनिःसृता । ( भाषार. टी. ५१ ) । मनुष्य जो दूसरे के प्रशुभचिन्तन में रत होकर प्रसत्य वचन बोलता है उसे उपघातनिःसृता भाषा कहते हैं । उपचय - १. उपचयनं चितस्याबाधाकालं मुक्त्वा ज्ञानावरणीयादितया निषेकः । स च एवम् – प्रथमस्थितो बहुतरं कर्म दलिकं निषिञ्चति, ततो द्वितीयायां विशेषहीनम्, एवं यावदुत्कृष्टायां विशेषहीनं निषिञ्चति । ( स्थाना. अभय वृ. ४, १, २५०, पृ. १८३ ) । २. उपचयो नाम स्वस्याबाधाकालस्योपरि ज्ञानावरणीयादिकर्म पुद्गलानां वेदनार्थ निषेकः । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. १४ - १६० ) । गृहीत कर्मपुद्गलों के प्रबाधाकाल को छोड़कर श्रागे ज्ञानावरणादि स्वरूप से निसिञ्चन करना - क्षेपण करना, इसका नाम उपचय है । उपचयद्रव्यमन्द —— उपचयद्रव्यमन्दो नाम यः परिस्थूरतरशरीरतया गमनादिव्यापारं कर्तुं न शक्नोति । ( बृहत्क. वृ. ६६७ ) 1 जो शरीर के अधिक स्थूल होने से गमनागमन श्रादि कार्यों के करने में असमर्थ हो उसे उपचयद्रव्यमन्द कहते हैं । उपचयपद - १. तत्रोपचितावयवनिबन्धनानि ( प्रव - यवपदानि ) । यथा - गलगण्डः, शिलीपदः, लम्ब - कर्ण इत्यादीनि नामानि । ( धव. पु. १, पृ. ७७ ) । २. सिलीवादी गलगंडो दीहनासो लंबकण्णो इच्चेव - मादीणि णामाणि उवचयपदाणि, सरीरे उवचिदमवयवमवेक्खिय एदेसि णामाणं पउत्तिदंसणादो । ( जयध. पु. १, पृ. ३२-३३) । २ शरीर के श्रवयवों में वृद्धि होने से जो विशिष्ट प्रवयव होते हैं उन्हें उपचयपद कहते हैं । जैसे-शिलीपदी, गलगण्ड, दीर्घनास और लम्बे कान वाला आदि । उपचयभावमन्द - उपचयभावमन्दः पुनर्यो बुद्धेरुपचयेन यतस्ततः कार्यं कर्तुं नोत्सहते । × × × अथवा तलिना' सूक्ष्मा कुशाग्रीया बुद्धिः श्रेष्ठा, ततः सा सूक्ष्मतन्तुव्यूतपटीवत् अन्तः सारवत्त्वेन Jain Education International [ उपचरितासद्भूतव्यवहारनय उपचितेति कृत्वा यः कुशाग्रीयमतिः स उपचयभावमन्दः । (बृहत्क. वृ. ६६७ ) । जो बुद्धि के उपचय से इधर-उधर के कार्य करने में उत्साहित नहीं होता उसे उपचयभावमन्द कहते हैं । अथवा सारयुक्त होने से सूक्ष्म कुशाग्रबुद्धि उपचित कही जाती है, उस कुशाग्रबुद्धि से जो संयुक्त हो उसे उपचयभावमन्द कहते हैं । उपचरित भाव - एकत्र निश्चितो भावः परत्र चोपचर्यते । उपचरितभावः सः XXX ॥ ( द्रव्यान. त. १२-१०) । I एकत्र निश्चित भाव का अन्यत्र जो उपचार किया जाता है उसे उपचरितभाव कहते हैं । उपचरितसद्भूत व्यवहारनय - १. उपचरितः सद्भूतो व्यवहारः स्यान्नयो यथानाम | अबिरुद्धे हेतुवशात् परतोऽप्युपचर्यते यथा स्वगुणः ॥ श्रर्थविकल्पो ज्ञानं प्रमाणमिति लक्ष्यतेऽधुनापि यथा । अर्थ: स्व-परनिकायो भवति विकल्पस्तु चित्तदाकारम् ।। (पंचाध्यायी १, ५४०-४१) । २. सोपाधिगुण-गुणिनोर्भेदविषय उपचरितसद्भूतव्यवहारः । यथा जीवस्य मतिज्ञानादयो गुणाः । ( नयप्र. पृ. १०२) । २ उपाधिसहित गुण और गुणी में भेद को जो विषय करता है उसे उपचरित सद्भूत व्यवहारनय कहते हैं । जैसे— जीव के मतिज्ञान प्रादि गुण । उपचरिता सद्भूतव्यवहारनय- १. उपचरितो ऽसद्भूतोव्यवहाराख्यो नयः स भवति यथा । २६८, जैन - लक्षणावली द्य प्रौदयकाश्चितश्चेद् बुद्धिजा विवक्ष्याः स्युः ॥ ( पंचाध्यायी १ - ५४९ ) । २. यश्चकेनोपचारेणोपचारो हि विधीयते । स स्यादुपचरिताद्यसद्भूतव्यवहारकः ॥ ( द्रव्यानु त ७-१३ ) । ३. अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्यान्यत्र समारोपणमसद्भूतव्यव हारः ।।१२।। असद्भूनव्यवहार एवोपचारः यः उपचारादप्युपचारं करोति स उपचरितासद्भूतव्यवहारः । यथा देवदत्तस्य धनमिति, श्रत्र संश्लेषरहितं वस्तु सम्बन्धसहित वस्तुसम्बन्धविषयः || १३ || ( नयप्र. पृ. १०३) । १ जीव के क्रोधादि भाव यदि बुद्धिपूर्वक संजात विवक्षित हैं तो उन्हें जीव के श्रदयिक भाव मानना यह उपचरित-प्रसद्भूतव्यवहारनय है । ३ श्रन्य वस्तु के प्रसिद्ध धर्म का अन्य में श्रारोप करना, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446