Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 360
________________ उत्तरप्रकृति] २५१, जैन-लक्षणावली [उत्तराध्यायानुयोग दोष है। स्वरूप आलोचना प्रादि को दीर्घ काल तक करने के उत्तराध्ययन-१. कमउत्तरेण पगयं पायारस्सेव पश्चात् जो वन्दना करता है उसके उत्तरचूलिका उवरिमाइं तु । तम्हा उ उत्तरा खलु अज्झयणा नामक वन्दनादोष होता है। २ वन्दना देकर 'मस्तक होति णायव्वा ॥ (उत्तरा. नि. ३, पृ. ५)। २. से मैं वन्दना करता हूँ, इस प्रकार उच्च स्वर से उत्तरज्झयणाणि आयारस्स उरि प्रासित्ति तम्हा कहना, यह वन्दनाविषयक उत्तरचल नाम का उत्तराणि भवंति। (उत्तरा.च. पृ. ६)। ३. उत्तर ज्झयणं उत्तरपदाणि वण्णेइ। (धव. पु. १, प, ७७); उत्तरप्रकृति-पूध-पुधावयवा पज्जवट्टियणयणिबंध- उत्तरज्झयणं उग्गमुप्पायणेसणदोसगयपायच्छित्तविणा उत्तरपयडी जाम । (धव. पु. ६, पृ.५-६)। हाणं कालादिविसे सिदं परूवेदि। (धव. पु. ६, पृ. पर्यायाथिक नय के प्राश्रय से किये जाने वाले पृथक् १९०)। ४. चउव्विहोवसग्गाणं बाबीसपरिस्सहाणं पथक कर्मप्रकृतिभेदों का नाम उत्तरप्रकृति है। च सहण विहाणं सहणफलमेदम्हादो एदमत्तरमिदि च उत्तरप्रकृति-अनुभागसंक्रम-उत्तरपयडीणं च उत्तरज्झेणं वण्णेदि। (जयघ. १, पृ. १२०) । मिच्छत्तादीणमणुभागस्स प्रोकड्डुकड्डण-परपयडिसं- ५. प्राचारात् परतः पूर्वकाले यस्मादेतानि पठितकमेहि जो सत्तिविपरिणामो सो उत्तरपयडि-अणु- वन्तो यतयस्तेनोत्तराध्ययनानि । (त. भा. सिद्ध. व. भागसंकमो त्ति । (जयध. ६, पृ. २)। १-२०)। ६. उत्तराण्यधीयन्ते पठ्यन्तेऽस्मिन्नित्यूमिथ्यात्व प्रादि उत्तर प्रकृतियों के अनुभाग की राध्ययनम्, तच्च चतुर्विधोपसर्गाणां द्वाविंशतिपरीषशक्ति का जो अपकर्षण, उत्कर्षण और परप्रकृति- हाणां च सहनविधानं तत्फलम्, एवं प्रश्ने एवमित्यु. संकमण के द्वारा विरुद्ध परिणमन होता है उसे तरविधानं च वर्णयति । (गो. जी. म. प्र. व जी. उत्तरप्रकृति-अनुभागसंक्रम कहते हैं। प्र. टी. ३६७) । ७. भिक्षूणामुपसर्गसहनफलनिरूउत्तरप्रकृति-विपरिणामना-णिज्जिण्णा पयडी पकमुत्तराध्ययनम् । (त. वृत्ति श्रुत. १-२०)। देसेण सव्वणिज्जराए वा, अण्णपयडीए देससंकमेण ८. उत्तराणि अहिज्जति उत्तरऽज्झयणं मदं जिणिवा सव्वसंकमेण वा जा संकामिज्जदि, एसा उत्तर- देहिं । बाबीसपरीसहाणं उदसग्गाणं च सहणबिहिं । पयडिविपरिणामणा णाम । (धव. पु. १५, पृ. वण्णेदि तप्फलमदि एवं पण्हे च उत्तरं एवं । कहदि २८३) । गुरुसीसयाणं पइण्णियं अट्टमं तं खु ॥ (अंगप. २५, देशनिर्जरा अथवा सर्वनिर्जरा से निर्जीर्ण प्रकति २६, पृ. ३०६)। का तथा देशसंक्रमण अथवा सर्वसंक्रमण के द्वारा १ क्रम की अपेक्षा जो प्राचारांग के उत्तर-पश्चात् अन्य प्रकृति में संक्रान्त की जाने वाली प्रकृति का -मुनियों के द्वारा पढ़े जाते थे वे विनय व परीषह नाम उत्तरप्रकृति-विपरिणामना है। आदि ३६ उत्तराध्ययन कहे जाते हैं। ३ जिसमें उत्तरप्रयोगकरण-१.xxx इअरं पोगो उद्गम, उत्पादन और एषण दोषों सम्बन्धी प्रायजमिह। निप्फन्ना निप्फज्जइ पाइल्लाणं च तं तिण्हं । श्चित्त का विधान कालादि की विशेषतापूर्वक (प्राव. भा. १५६, पृ. ५५६) । २. प्रयोगेण यदिह किया गया हो वह उत्तराध्ययन कहलाता है। लोके मूलप्रयोगेण, निष्पन्नात् तन्निष्पन्नात् निष्पद्यते ६ जिस शास्त्र में देव, मनुष्य, तिथंच और अचेतन तदुत्तरप्रयोगकरणम्, तच्च त्रयाणामाद्यानां शरीरा- कृत चतुर्विध उपसर्ग व बाईस परीषहों के सहन णाम् । इयमत्र भावना xxx अङ्गोपाङ्गादि- करने की विधि का एवं उनके फल का विधान करणं तत्तरप्रयोगकरणं, तच्चौदारिक-वैक्रियिकाहा- किया गया हो तथा प्रश्नों के उत्तर का विधान रकरूपाणां त्रयाणां शरीराणाम्, न तु तैजस-कार्म- किया गया हो उसे उत्तराध्ययन कहते हैं । णयोः, तयोरङ्गोपाङ्गाद्यसम्भवात् । (प्राव. भा. उत्तराध्यायानुयोग–अनुयोजनमनुयोगः, अर्थव्यामलय. वृ. १५६, पृ. ५५६)। ख्यानमित्यर्थः, उत्तराध्यायानामनुयोगः उत्तराध्याप्रौदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीन शरीरों यानुयोगः xxx । (उत्तरा. चू. पृ. १)। के अङ्गोपाङ्ग प्रादि करण को उत्तरप्रयोगकरण उत्तराध्ययन के अध्ययनों के अर्थ के व्याख्यान को कहते हैं। उत्तराध्यायानुयोग कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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