Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 363
________________ उत्सन्न क्रिय-अप्रतिपाति] २५४, जैन-लक्षणावली [उत्सर्पिणी प्लुत्य करोति यत्र तट्टोलगतिवन्दनकमिति गाथार्थः। दीनाम् अविरोधेन अङ्गमलनिर्हरणं शरीरस्य च (प्राव. व. टि. मल. हेम. पृ. ८७)। स्थापनम् उत्सर्गसमितिरवगन्तव्या। (त. वा. ६, ५, पतंगा अथवा टिड्डी के समान आगे-पीछे उछलकर ८)। ३. जीवाविरोधेनाङ्गमलनिहरणं समुत्सर्गसवन्दना करना, यह उत्ष्वष्कण-अभिष्वष्कण नामक मितिः। (त. इलो. ९-५) । ४. तदवजितं वन्दना का दोष है। इसका दूसरा नाम टोलगति (स्थावर-जङ्गमजीवजितं ) निरीक्ष्य चक्षुषा भी है। (मूलाचार ७-१०६ और अनगारधर्मामृत प्रमृज्य च रजोहृत्या वस्त्र-पात्र-खेल-मल-भक्तपान८-६९ में सम्भवतः ऐसे ही दोष को दोलायित मूत्र-पुरीषादीनामुत्सर्गः उज्झनं उत्सर्गसमितिः । नाम से कहा गया है)। (त. भा. हरि. वृ. ६-५)। ५. स्थावराणां जङ्गउत्सन्तक्रिय-अप्रतिपाति--देखो व्यूपरतक्रियानि- मानां च जीवानामविरोधेनांगमलनिहरणं शरीरस्य वति शक्लध्यान । केवलिनः शैलेशीगतस्य शैलवद- च स्थापनमुत्सर्गसमितिः। (चा. सा. पृ. ३२) । कम्पनीयस्य । उत्सन्नक्रियमप्रतिपाति तुरीयं परम- ६. कफ-मूत्र-मलप्रायं निर्जन्तु जगतीतले । यत्नाद्यशक्लम् ।। (योगशा. ११-६)। दुत्सृजेत् साधुः सोत्सर्गसमितिर्भवेत् ॥ (योगशा. मे के समान स्थिरतारूप शैलेशी अवस्था को १-४०)। ७. दूरगृढविशालानिरुद्धशद्धमहीतले । प्राप्त अयोगिकेवली के ध्यान को उत्सन्नक्रिय- उत्सर्गसमितिविण्मूत्रादीनां स्याद्विसर्जनम् ॥ (आचा. अप्रतिपाति शुक्ल ध्यान कहते हैं । यह शुक्ल ध्यान सा. १-३६)। ८. निर्जन्तौ कुशले विविक्तविपले का अन्तिम (चतुर्थ) भेद है। लोकोपरोघोज्झिते प्लुष्टे कृष्ट उतोषरे क्षितितले उत्सर्ग-देखो अप्रत्यवेक्षिताप्रमाणितोत्सर्ग । १. विष्ठादिकानुत्सृजन् । धुः प्रज्ञाश्रमणेन नक्तमभितो उत्सर्गः त्यागो निष्ठ्यूत-स्वेद-मल-मूत्र-पुरीषादीनाम्। दृष्टे: विभज्य विधा । सुस्पृष्टेऽप्यपहस्तकेन समिताxxx अथवा अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजित उत्सर्ग वुत्सर्ग उत्तिष्ठते ।। (अन. ध. ४-१६६) । करोति, ततः पौषधोपवासव्रतमतिचरति । (त. भा. ६. निर्जीवे शुषिरे देशे प्रत्यूपेक्ष्य प्रमाणं च । यत्त्या. सिद्ध. व. ७-२६)। २. बाल-वृद्ध-श्रान्त-ग्लानेनापि गो मल-मूत्रादेः सोत्सर्गसमितिः स्मता ।। (लोकप्र. संयमस्य शद्वात्मतत्त्वसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न ३०-७४८) । १०. विमुत्र-श्लेष्म-खिल्यादिमलयथा स्यात्तथा संयतस्य स्वस्य योग्यमतिकर्कशमेवाच- मुज्झति यः शुचौ। दृष्ट्वा विशोध्य तस्य स्यादरणमाचरणीयमित्युत्सर्गः । (प्रव. सा. अमृत. वृ. त्सर्गसमितिहिता ।। (धर्मसं. था. ६-८)। ११. ३-३०)। ३. यदुचितं परिपूर्णद्रव्यादि योग्यमनुष्ठानं प्राणिनामविरोधेन अङ्गमलत्यजनं शरीरस्य च स्थाशद्धान्न-पानगवेषणारूपं परिपूर्णमेव यत्तदौचित्येना- पनं दिगम्बरस्य उत्सर्गसमितिः भवति । (त. वन्ति नुष्ठान्नं स उत्सर्गः । (उप. प. वृ. ७८४)। श्रुत. ६-५)। १ भूमि के बिना देखे शोधे थूक, पसीना, मल, १ स्थावर और जङ्गम जीवों से रहित शद्ध भमि मत्र और विष्ठा प्रादि के त्याग करने का नाम में देखकर एवं रजोहरण से झाड़कर मल-मत्र प्रादि उत्सर्ग है। यह पौषधोपवास का एक अतिचार है। का त्याग करना, इसका नाम उत्सर्गसमिति है। २ बाल, वृद्ध, धान्त और रुग्ण साधु भी मूलभूत २ त्रस-स्थावर जीवों के विरोध (विराधना) से संयम का विनाश न हो, इस दृष्टि से जो शुद्ध रहित शुद्ध भूमि में शरीरगत मल के छोड़ने और प्रात्मतत्त्व के साधनभूत अपने योग्य प्रति कठोर शरीर के स्थापित करने को उत्सर्गसमिति कहते हैं। संयम का प्राचरण करता है। यह संयम परिपालन उत्सपिरणी-१. णर-तिरियाणं पाऊ-उच्छेह-विभुका उत्सर्गमार्ग-सामान्य विधान है। दिपहुदियं सवं । xxx उस्सप्पिणियासू वड़ उत्सर्गसमिति- देखो उच्चारप्रस्रवणसमिति । ढेदि । (ति.प. ४-३१४)। २. अनभवाटिभि १. स्थण्डिले स्थावर-जङ्गमजन्तुजिते निरीक्ष्य त्सर्पणशीला उत्सपिणी। (स. सि. ३-२७) । प्रमृज्य च मूत्र-पूरीषादीनामुत्सर्ग उत्सर्गसमितिः। ३. तद्विपरीतोत्सपिणी। तद्विपरीतैरेवोत्सर्पणशीला (त. भा. ६-५) । २. जीवाविरोधेनाङ्गमलनिर्हरण- वृद्धिस्वाभाविकोत्सर्पिणीत्युच्यते । (त. वा. ३, २७, मत्सर्गसमितिः। स्थावराणां जङ्गमानां च जीवा- ५)। ४. दससागरोवमाणं पुण्णाओ होंति कोडिको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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