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उत्तरकरण] २५०, जैन-लक्षणावली
[उत्तरचूलिका दोष कादिनोपकरणेन दानयोग्यतया दायकेनोद्यातं तादृशं उत्तरगुरण-शेषाः पिण्डविशुद्धयाद्याः स्युरुत्तरगुणाः यदि लप्स्येत ततो गृहीष्यामः नावशिष्टमित्युत्क्षिप्त- स्फुटम् । एषां चानतिचाराणां पालनं ते त्वमी चर्या उत्क्षिप्ताभ्यवहरणमिति । (त. भा. हरि. वृ. मताः ।।४७।। (अभिधा. २, पृ. ७६३) । ९-१९) । २. उत्क्षिप्तं पटलकादिकं कुडुच्छुकादि- मूलगुणों से भिन्न पिण्डशुद्धि प्रादि उत्तरगुण माने नोपकरणेन दानयोग्यतया दायकेनोद्यतं तादृशं यदि जाते हैं। लप्स्ये ततो गृहीष्यामि, नावशिष्टमित्युत्क्षिप्तचर्या उत्तरगुरणकल्पिक-आहार-उवहि-सज्जा उग्गमउत्क्षिप्ताऽभ्यवहरणमिति । (त. भा. सिद्ध. वृ. उप्पादणेसणासुद्धा। जो परिगिण्हति निययं उत्तर६-१६)।
गुणकप्पियो स खलु ।। (बृहत्क. ६४४४); यः प्राहादाता कलछी प्रादि से दान के योग्य जिस भोज्य रोपधि-शय्या उदगमोत्पादनैषणाशद्धा नियतं निश्चितं वस्तु को पात्र में से निकाल लेता है, ऐसा यदि प्राप्त परिगृह्णाति स खलु उत्तरगुणकल्पिको मन्तव्यः । होगा तो उसे ही ग्रहण करूंगा, अन्य को नहीं; इस (बृहत्क. वृ. ६४४४) । प्रकार से अभिग्रहपूर्वक की जाने वाली चर्या को जो साधु नियम से उद्गम, उत्पादन और एषणा उत्क्षिप्तचर्या कहते हैं।
दोषों से रहित आहार, उपधि और शय्या को ग्रहण उत्तरकरण-१. खंडिअ-विराहियाणं मूलगुणाणं किया करता है उसे उत्तरगणकल्पिक कहा जाता है। स-उत्तरगुणाणं । उत्तरकरणं कीरइ जह सगड-रहंग- उत्तरगुरणनिर्वर्तनाधिकरण-१. उत्तरगुणनिर्वगोहाणं ॥६६॥ (प्राव. ५ अ.-अभिधा. २, पृ. र्तना काष्ठ-पुस्त-चित्र-कर्मादीनि । (त. भा. ६-१०)। ७५७) । २. मूलतः स्वहेतुभ्य उत्पन्नस्य पुनरुत्तर- २. उत्तरं काष्ठ-पुस्त-चित्रकर्माणि । (त. वा. ६, ६, कालं विशेषाधानात्मकं करणमुत्तरकरणम् । (उत्तरा. १२)। ३. तथाङ्गोपाङ्ग-संस्थान-मृद्वादि-तक्ष्ण्यादिनि. शा. व. ४-१८२, पृ. १६४) ।
रुत्तरगुणः, सोऽपि निवृत्तः सन्निधिकरणीभवति १ मूलगुण और उत्तरगणों के सर्वथा खण्डित होने कर्मबन्धस्योत्तरगुण एव निर्वर्तनाधिकरणम् । (त. पर अथवा देशतः खण्डित होने पर पुन: उनका जो भा. सिद्ध. वृ. ६-१०) । ४. उत्तरगुणनिर्वर्तना उत्तरकरण किया जाता है–पालोचमा प्रादि के काष्ठ-पुस्त-चित्रकर्मभेदा। (त. सुखबो. वृ. ६-६)। द्वारा उन्हें शुद्ध किया जाता है, इसका नाम उत्तर- ५. उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरणं काष्ठ-पाषाण-पुस्तककरण है । जैसे लोक में गाड़ी आदि के विकृत हो चित्र-कर्मादिनिष्पादनं जीवरूपादिनिष्पादनं लेखनं जाने पर उनका सुधार करके फिर से उन्हें व्यवहार के चेत्यनेकविधम् । (त. वृत्ति श्रुत. ६-६)। योग्य बनाया जाता है। २ अपने कारणों से उत्पन्न १ काष्ठ, पुस्तक व चित्रकर्म आदि को उत्तरगुणघटादि को जो पश्चात् विशेषाधान रूप किया जाता निर्वर्तना कहा जाता है। है उसे उत्तरकरण कहते हैं।
उत्तरचूलिका दोष-१. वन्दनां स्तोकेन कालेन उत्तरकरणकृति-जा सा उत्तरकरणकदी णाम निर्वर्त्य वन्दनायाश्चूलिकाभूतस्यालोचनादिकस्य सा अणेयविहा । तं जहा-असि-वासि-परसु-कुडारि- महता कालेन निर्वर्तकं [नं] कृत्वा यो वन्दनां विधचक्क-दंड-बेम-णालिया-सलागमट्टियसुत्तोदयादीणसुव- घाति तस्योत्तरचूलिकादोषः। (मूला. वृ. ७-१०६)। संपदसण्णिज्झे । (षट्खं. ४, १, ७२-पु. ६, पृ. २. उत्तरचूलं वन्दनं दत्त्वा महता शब्देन 'मस्तकेन ४५०)।
___ वन्दे' इत्यभिधानम् । (योगशा. स्वो. विव. १३०, तलवार, वसूला, फरसा और कुदारी आदि उप- पृ. २३७)। ३.xxxचूला चिरेणोत्तरचूलिका ।। करणों का कार्योत्पत्ति में सांनिध्य रहने से उन (अन.प. ८-१०९); उत्तरचूलिका नाम दोषः सबको उत्तरकरणकृति कहा जाता है। जीव से स्यात् । या किम् ? या चूला। केन ? चिरेण । अपृथग्भूत होकर समस्त करणों के कारण होने वन्दनां स्तोककालेन कृत्वा तच्चूलिकाभूतस्यालोचनासे प्रौदारिकादि पांच शरीरों को मूलकरण कहा देमंहता कालेन करणमित्यर्थः। (अन. घ. स्वो. टी. जाता है। इन मूलकरणों के करण होने के कारण ८-१०९)। उक्त तलवार प्रादि को उत्तरकरण माना गया है। १ वन्दना को शीघ्रता से करके उसकी चूलिका
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