Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 356
________________ उत्कृष्ट दाह ] उत्कृष्ट दाह - उक्कसदाहो णाम उक्कस्स ठिदिबंधकारणउक्कस्ससंकिलेसो । (धव. पु. ११, पृ. ३३६) । उत्कृष्ट कर्मस्थिति के बन्ध के कारणभूत उत्कृष्ट संक्लेश का नाम उत्कृष्ट दाह है । उत्कृष्ट निक्षेप - १. उक्कस्श्रो पुण णिक्खेवो केत्तियो ? जत्तिया उक्कस्सिया कम्मठिदी उक्कस्सियाए बाहाए समउत्तरावलियाए च ऊणा तत्तिश्रो उक्कस्सो निक्खेवो । (घव. पु. ६, पू. २२६ का टि. १) । २. उक्कस्सद्विदिबंधो समयजुदावलिदुगेण परिहीणो । उक्कट्ठिदिम्मि चरिमे दिम्मि उक्करणिक्खेवो । ( लब्धि. ५८ ) । उत्कृष्ट श्रावाधा और एक समय अधिक श्रावलि से हीन जितनी उत्कृष्ट कर्मस्थिति हो, उतना उत्कृष्ट निक्षेप होता है । २४७, जैन - लक्षणावली उत्कृष्ट पद — उक्कस्सदव्वमस्सिदूण जो गुणगारो तमुक्कस्सपदं णाम । ( धव. पु. १४, पृ. ३६२ ) । उत्कृष्ट द्रव्य का श्राश्रय लेकर जो गुणकार होता है उसे उत्कृष्ट पद कहा जाता है । उत्कृष्ट पदमीमांसा - जत्थ पचण्हं सरीराणं उक्कसदव्वपरिक्खा कीरदि सा उक्कस्सपदमीमांसा | (घव. पु. १४, पृ. ३ε७ ) । जिस अधिकार में पांचों शरीरों के उत्कृष्ट द्रव्य की परीक्षा की जाती है उसे उत्कृष्ट पदमीमांसा कहते हैं। उत्कृष्टपदात्पबहुत्व -- उक्कस्सदव्व विसय मुक्कस्स - दप्पाबहुगं णाम । ( धव. पु. १४, पृ. ३८५) । उत्कृष्ट द्रव्य सम्बन्धी अल्पबहुत्व को उत्कृष्टपदात्पवहुत्व कहते हैं । उत्कृष्ट परीतानन्त - १. जं तं जहण्णपरित्ताणंतयं तं विरलेदूण एक्केक्कस्स रूवस्स जहण्णपरित्ताणंतयं दादूण प्रणोष्ण भत्थे कदे उक्कस्सपरित्ताणतयं श्रदिच्छिण जहण्णजुत्ताणंतयं गंतूण पडिदं । एवदिश्रो अभवसिद्धियरासी । तदो एगरूवे अवणीदे जादं उक्कस्सपरित्ताणंतयं । ( ति प ४, पू. १८३ ) । २. यज्जघन्यपरीतानान्तं तत्पूर्ववद् वर्गित संवर्गितमुत्कृष्टपरीतानन्तमतीत्य जघन्ययुक्तानन्तं गत्वा पतितम् । तत एकरूपेऽपनीते उत्कृष्टं परीतानन्तं तद् भवति । (त. वा. ३, ३८, ५, पृ. २०७ ) । २ जघन्य परीतानन्त को पूर्व के समान उत्कृष्ट परीता संख्यात के समान वर्गित संवर्गित करने पर उत्कृष्ट परीतानन्त को लांघ कर जघन्य युक्तानन्त Jain Education International [ उत्कृष्ट श्रावक जाकर प्राप्त होता है । उसमें से एक अंक के कम करने पर उत्कृष्ट परीतानन्त होता है । उत्कृष्ट मंगल - धम्मो मंगलमुविकट्ठ अहिंसा संजमो तवो । ( दशवे. सू. १-१ ) । श्रहिंसा, संयम और तप रूप धर्म को उत्कृष्ट मंगल कहते हैं । उत्कृष्ट श्रावक - १. गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिग्र । भैक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधरः ॥ ( रत्नक. १४७ ) । २. एयारसम्मि ठाणे उविकट्ठो सावो हवे दुविहो । वत्थेक्कधरो पढमो कवी परिग्गहो बिदिश्रो || धम्मिल्लाणं चयणं करेइ कत्तरि छुरेण वा पढो । ठाणाइसु पडिलेहइ उवयरणेण पयडप्पा || भुंजेइ पाणि-पत्तम्मि भायणे वा सई समुवि । उपवासं पुण णियमा चउब्विहं कुणइ पव्वेसु ॥ पक्खालिऊण पत्तं पविसइ चरियाय पंगणे ठिच्चा | भणिऊण धम्मलाहं जायइ भिक्खं सयं चेव । सिग्घं लाहाला हे प्रदीणवयणो नियत्तिऊण तो । प्रणम्मि गिहे वच्चइ दरिसइ मोणेण कार्य वा ।। जइ श्रद्धवहे कोइ वि भणइ पत्थेइ भोयणं कुणइ । भोत्तूण णिययभिक्खं तस्सण्णं भुंजए सेसं ।। अह ण भणइ तो भमेज्ज णियपोट्टपूरणपमाणं । पच्छा एयम्मि गिहे जाएज्ज पासुगं सलिलं ॥ जं कि पि पढियभिक्खं भुंजिज्जो सोहिऊण जत्तेण । पक्खालिऊण पत्तं गच्छिज्जो गुरुसयासम्मि । जइ एयं ण रएज्जो काउंरिसगिम्मि चरियाए । पविसत्ति एयभिक्खं पवित्तिणियमणं ता कुज्जा | गंतूण गुरुसमीवं पच्चक्खाणं चउव्विहं विहिणा । गहिऊण तम्रो सव्वं आलोचेज्जा पयते ।। एमेव होइ विश्र णवरि विसेसो कुणिज्ज नियमेण । लोचं धरिज्ज पिच्छं भुंजिज्जो पाणिपत्त || उद्दिट्ठपिंडविरो दुवियप्पो सावग्रो समासेण । एयारसम्म ठाणे भणिश्रो सुत्ताणुसारेण ॥ ( वसु. श्रा. ३०१ - ११ व ३१३) । ३. तत्तद्व्रतास्त्रनिभिन्नश्वसन् मोहमहाभटः । उद्दिष्टं पिण्डमप्युज्दुत्कृष्टः श्रावकोऽन्तिमः । स द्वेधा प्रथमः श्मश्रुमूर्द्धजानपनाययेत् । सितकौपीनसंव्यानः कर्तर्या वा क्षुरेण वा ।। स्थानादिषु प्रतिलिखेत् मृदूपकरणेन सः ! कुर्यादेव चतुपर्व्यामुपवासं चतुर्विधम् । स्वयं समुपविष्टोऽद्यात् पाणिपात्रेऽथ भाजने । स श्रावकगृहं गत्वा पात्रपाणिस्तदङ्गणे ।। स्थित्वा भिक्षां धर्म For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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