Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 355
________________ उच्छ्वास-निःश्वास.] २४६, जैन-लक्षणावली [उत्कृष्ट ज्ञान सोच्छवासपर्याप्तिरुच्यते ॥ (लोकप्र. ३-२२)। १ करोंत प्रादि से काष्ठ प्रादि के चीरने को उत्कर १ जिस शक्ति से उच्छ्वास के योग्य वर्गणाद्रव्य को कहते हैं । ग्रहण कर और उसे उच्छ्वास रूप से परिणमाकर उत्कर्षण-१. कम्मपदेसट्ठिदिवड्ढावणमुक्कड्डणा। छोड़ता है उसे उच्छ्वासपर्याप्ति कहते हैं। (धव. पु. १०, पृ. २२) । २. उक्कड्डणं हवे वड्ढी । उच्छ्वास-निःश्वासपर्याप्ति -विवक्षितपुद्गल- (गो. क. ४३८) । ३. स्थित्यनुभागयोवृद्धिरुत्कर्षस्कन्धान् उच्छ्वास-नि:श्वासरूपेण परिणमयितुं पर्या- णम् । (गो. क. जी. प्र. टी. ४३८) । प्तनामकर्मोदयजनितात्मनः शक्तिनिष्पत्तिरुच्छ्वास १कर्मप्रदेशों की स्थिति के बढ़ाने को उत्कर्षण निःश्वासपर्याप्तिः । (गो. जी. म. प्र. टी. ११९ कहते हैं। कातिके. टी. १३४)। उत्कालिक स्वाध्यायकाले अनियतकालमुत्कालिपर्याप्त नामकर्म के उदय से विवक्षित पुद्गलस्कन्धों कम् । (त. वा. १, २०, १४) । को उच्छ्वास-निःश्वासरूप से परिणमाने के लिए जिस अंगवाह्य श्रुत के स्वाध्याय का काल नियत जो जीव के शक्ति उत्पन्न होती है उसका नाम नहीं है वह उत्कालिक कहलाता है। उच्छ्वास-निःश्वासपर्याप्ति है। उत्कीर्तना-उत्कीर्तना नाम संशब्दना, यथा कल्पाउज्झित दोष-१. स्यादुज्झितं बहु त्यक्त्वा यच्चू- ध्ययनं व्यवहाराध्ययनमिति । (व्यव. भा. मलय. ताद्यल्पसेवनम् । पानादि दीयमानं वा उनल्पेन गल- व. १, पृ. २)। नेन तत् ॥ (प्राचा. सा. ८-४८)। २. यच्चूत- किसी ग्रन्थ प्रादि के स्पष्ट उच्चारण का नाम फलादिकं बह त्यक्त्वाल्पसेवनं तदुज्झितम्, अथवा उत्कीर्तना है। जैसे कल्पाध्ययन व व्यवहाराध्ययन । यत्पानादिकं दीयमानं बहतरेण गलनेनाल्पसेवनं तद् सन-देखो उत्कटिकासन । उक्कुडिया ज्झितम् । (भा. प्रा. टी. ६६, पृ. २५१)। ऊर्ध्व संकुचितासनम् । (भ.प्रा. विजयो. टी. २२४)। १दिये गये बहत आम्रफलादिक को छोड़कर थोड़े देखो उत्कटिकासन । का सेवन करना, अथवा पीने योग्य द्रव्य में से बहत । उत्कुटुकासनिक-उत्कुटुकासनं पीठादौ पुतालगनेअधिक गलने से थोड़े का सेवन करना, यह उज्झित नोपवेशनरूपमभिग्रहतो यस्यास्ति स उत्कुटकासनिनाम का एषणादोष है। कः । (स्थाना. अभय. वृ. ५, १, ३६६, पृ. २८४)। उत्कञ्चन-उत्कञ्चनम् उपरि कम्बिकानां बन्ध चतड़ों का स्पर्श न कराकर पाटे प्रादि पर बैठना, नम् । (बृहत्क. मलय. वृ. ५८३) । यह उत्कुटुक प्रासन कहलाता है, इस प्रासनविशेष ऊपर कम्बिकानों-काष्ठविशेषों-का वांधना, को जिसने नियमपूर्वक ग्रहण किया है उसे उत्कुटयह उत्कञ्चन नाम का वसति-उत्तरकरण है। कासनिक कहा जाता है। उत्कटिकासन-देखो उत्कुटिकासन और उत्कुटु- उत्कृष्ट अन्तरात्मा - पंचमहव्वयजुत्ता धम्मे कासनिक । १. पूत-पाष्णिसमायोगे प्राहुरुत्कटिकास- सक्के वि संठिया णिच्चं । णिज्जियसयलपमाया नम् । (योगशा. ४-१३२)। २. उक्कडिया यु-[पु.] उक्किट्ठा अंतरा होति ।। (कार्तिके. १६५) । ताभ्यां भूमिमस्पृशतः समपादाभ्यामासनम् । (भ. पञ्च महावतों के धारक, सकल प्रमादों के विजेता प्रा. मूला. टी. २२४)। और धर्म अथवा शुक्ल ध्यान में स्थित साधुनों को २ चतड़ और पाणियों (एड़ियों) के मिलने पर उत्कृष्ट अन्तरात्मा कहते हैं। उत्कटिकासन होता है। उत्कृष्ट ज्ञान-निर्वाणपदमेप्येकं भाव्यते यन्मुहुउत्कर-१. तत्रोत्करः काष्ठादीनां करपत्रादि- र्मुहुः । तदेव ज्ञानमुत्कृष्टं निर्बन्धो नास्ति भूयसा ॥ भिरुत्करणम् । (स. सि. ५-२४; त. वा. ५, २४, (ज्ञानसू. ५-२)। १४; कातिके. टी. २०६)। २. दादीनां क्रकच- जिस ज्ञान के द्वारा एक मात्र निर्वाण पद की कुठारादिभिः उत्करणं भेदनमुत्करः। (त. वृत्ति निरन्तर भावना की जाती है वही उत्कृष्ट ज्ञान श्रुत. ५-२४)। कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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