Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 353
________________ उच्चताभृतक ] श्रुतसत्काराभ्युत्थानासनप्रदानाञ्जलिप्रग्रहादिसम्भवस्तदुच्चैर्गोत्रम् | ( पंचसं मलय वृ. ३-५, पृ. ११३; प्रज्ञाप. मलय. वृ. २३, २, २६३, पृ. ४७५; कर्मप्र. यशो. वृ. १, पृ. ७) । १२. यदुदयादुत्तमकुलजातिप्राप्तिः सत्काराभ्युत्थानाञ्जलिप्रग्रहादिरूप - पूजालाभसम्भवश्च तदुच्चैर्गोत्रम् । (षष्ठ क. मलय. वृ. ६, पृ. १२७) । १३. अधनी धनहीनः, बुद्धिवि - युक्त: मतिनिर्मुक्तः, रूपविहीनः रूपरहितोऽपि । यस्य कर्मण उदयेन लोके जातिमात्रादेव पूजां लभते तदुच्चैर्गोत्रं पूर्णकलशकारिकुम्भकारतुल्यम् । ( कर्मवि. पा. व्या. १५४, पृ. ६३ ) । १४. यथा हि कुलाल: पुथिव्यास्तादृशं पूर्णकलशादिरूपं करोति, यादृशं लोकात् कुसुम-चन्दनादिभिः पूजां लभते X X X तथा यदुदयाद् निर्धनः कुरूपो बुद्ध्यादिपरि हीनोऽपि पुरुषः सुकुलजन्ममात्रादेव लोकात् पूजां लभते तत् उच्चैर्गोत्रम् | ( कर्मवि. दे. स्वो. वृ. ५१) । १ जिसके उदय से लोकपूजित कुल में जन्म हो उसे उच्चगोत्र कहते हैं । ११ जिसके उदय से जीव उत्तम जाति, कुल, बल, रूप, तप, ऐश्वर्य और श्रुत आदि द्वारा जगत् में पूजा व प्रादर-सत्कारादि को प्राप्त हो उसे उच्चगोत्र जानना चाहिये । उच्चताभूतक- म्रियते पोष्यते स्मेति भृतः, स एवानुकम्पितो भृतकः कर्मकरः इत्यर्थः । × × × मूल्यकालनियमं कृत्वा यो नियतं यथावसरं कर्म कार्यते स उच्चताभृतकः । ( स्थाना. अभय वृ. ४, १,२७१, पृ. १६१-६२ ) । काल के अनुसार किसी कार्य का मूल्य निश्चित करके यथावसर कार्य जिससे कराया जाता है उसे उच्चताभृतक कहते हैं । उच्च्चयबन्ध-से किं तं उच्चयबंधे ? उच्चयबंधे जंणं तरासीण वा कट्टरासीण वा पत्तरासीण वा तुसरासीण वा भुसरासीण वा गोमयरासीण वा अवगररासीण वा उच्चत्तेणं बंधे समुप्पज्जइ, जहन्नेणं तोमुत्तं उक्कोस्सेण संखेज्जं कालं से त्तं उच्चयबंधे । ( भगवती ८, ६, १४ - खण्ड ३, पृ. १०३) । तृणराशि, काष्ठराशि, पत्रराशि, तुषराशि, भुसराशि, गोबरराशि और अवकर ( कचड़ा ) राशि, इनका ऊंचा ढेर करने को उच्चयबन्ध कहा जाता है । उच्चस्थान – उच्चस्थानं स्वगुहान्तः स्वीकृतयत Jain Education International [उच्छ्लक्ष्णश्लक्ष्णका निरवद्यानुपहतस्थाने उच्चासने निवेशनम् । (सा. ध. स्वो. टी. ५-४५)। पडिगाहे गये साधु को घर के भीतर ले जाकर निर्दोष व निर्बाध स्थान में उच्च श्रासन पर बैठाने को उच्चस्थान भक्ति कहते हैं । उच्चारप्रत्रवरण समिति - वणदाह - किसि-मसिकदे थंडिल्लेणुप्परोध वित्थिष्णे । अवगदजंतुविवित्ते उच्चारादी विसज्जेज्जो ।। (मूला. ५ - १२४ ) । जो स्थान दावाग्नि से जल गया है, जहां खेती की गई है, जहां शवदाह आदि हुआ है, जो ऊषर --5 - अंकुरोत्पादन से रहित है, तथा द्वीन्द्रियादि जीवों से भी रहित है, ऐसे विस्तीर्ण निर्जन स्थान में मल-मूत्रादि के विसर्जन को उच्चारप्रस्रवणसमिति कहते हैं । उच्छादन -- प्रतिबन्धक हेतुसन्निधाने सति श्रनुद्भूतवृत्तिता श्रनाविर्भाव उच्छादनम् । ( स. सि. ६, २५) । विरोधी कारणों के मिलने पर गुणों के नहीं प्रगट करने को उच्छादन कहते हैं । २४४, जैन-लक्षणावली उच्छेद - देखो अन्तर । अंतरमुच्छेदो विरहो परिनामंतरगमणं णत्थित्तगमणं प्रष्णभावव्यवहाणमिदि एयट्ठो (धव. पु. ५, पू. ३ ) । अन्तर, उच्छेद, विरह, अन्य परिणाम की प्राप्ति, नास्तित्व की प्राप्ति और अन्य भाव का व्यवधान; इन सबका एक ही अर्थ है । तात्पर्य यह कि एक अवस्था को छोड़कर अन्य अवस्था को प्राप्त होते हुए पुनः उक्त (पूर्व) अवस्था के प्राप्त होने में जो काल लगता है उसका नाम उच्छेद ( श्रन्तर ) है । उच्छ्लक्ष्णलक्ष्णिका ( उत्सहसहिया) देखो उत्संज्ञासंज्ञा । १. परमाणु य अनंता सहिया उस सहिया एक्का । ( जीवस. ६६ ) । २. प्रणंताणं परमाणुपोग्गलाणं समुदयसमितिसमागमेणं सा एगा उस्सण्हसहिया । ( भगवती श. ६, ७, पू. ८२७) । ३. एते चानन्ताः परमाणवः एका अतिशयेन श्लक्ष्णा श्लक्ष्णश्लक्ष्णा, सैव श्लक्ष्णश्लणिका, उत्तरप्रमाणापेक्षया उत् प्राबल्येन श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका उच्छ्लक्ष्णश्लक्ष्णिका । ( संग्रहणी दे. वू. २४५ ) । ४. प्रणंताणंति - अनन्तानां व्यावहारिकपरमाणूनाम्, समुदायाः द्वयादिरूपास्तेषां समितयो मीलनानि, तासां समागमः परिणामवशादेकीभवनम्, ते येन समुदयसमितिसमागमेनैका उत् प्राबल्येन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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