Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 287
________________ प्रागमभावभाव] १७८, जैन-लक्षणावली [अागमाभास जावदिया उवजुत्ता भावा सो सवो आगमदो भाव- प्रकाशक बोध को आगमभावाहन कहते हैं। बंधो णाम। (षट्खं. ५, ६, १२-पु. १४, पृ. ७)। प्रागमभावाल्पबहत्व - अप्पाबहुअपाहुडजाणतो जो जीव बन्धविषयक प्रागम के स्थित-जितादि नौ उवजुत्तो आगमभावप्पाबहुधे । (धव. पु. ५, पृ. अर्थाधिकारों से सहित होकर तद्विषयक वाचना- २४२)। प्रच्छनादिरूप उपयोग से भी युक्त हो उसे पागम- अल्पबहत्वविषयक प्राभूत का ज्ञाता होकर तद्विषयक भावबन्ध कहते हैं। उपयोग से युक्त पुरुष को प्रागमभावाल्पबहुत्व प्रागमभावभाव - भावपाहुडजाणो उवजुत्तो कहते हैं। आगमभावभावो णाम । (धव. पु. ५, पृ. १८४)। प्रागमभावावश्यक-१. से कि तं पागमतो भावविषयक प्राभृत का ज्ञायक होकर तद्विषयक उप भावावस्सयं ? जाणए उवउत्ते, से तं प्रागमतो योगयुक्त पुरुष को प्रागमभावभाव कहते हैं। भावावस्सयं। (अनुयो. सू. २३, पृ. २८)। २. संवेआगमभाववर्गणा-वग्गणपाहुडजाणो उवजुत्तो गजणितविसुज्झमाणभावस्स सुतमणुस्सरतो तदा आगमभाववग्गणा । (धव. पु. १४, पृ. ५२)। भावयोगपरिणयस्स पागमतो भावावस्सगं भवति । वर्गणाविषयक प्राभूत का ज्ञाता होकर तद्विषयक (अनुयो. चू. पृ. १३)। ३. तत्र आगमतो भावाउपयोग से युक्त पुरुष को प्रागमभाववर्गणा वश्यकज्ञाता उपयुक्तः, तदुपयोगानन्यत्वात् । अथवाकहते हैं। ऽऽवश्यकार्थोपयोगपरिणाम एवेति । (प्राव. नि. हरि. प्रागमभाववेदना-तत्थ वेयणाणियोगद्दारजाणग्रो वृ.७६, पृ. ५२) । ४. ज्ञायक उपयुक्त आगमउवजुत्तो आगमभाववेयणा । (धव. पु. १०, पृ. ८)। तो भावावश्यकम्। इदमूक्तं भवति-आवश्यकवेदना अनुयोगद्वार का ज्ञाता होकर तद्विषयक उप पदार्थज्ञस्तज्जनितसंवेगेन विशद्धयमाणस्तत्र चोपयोग से युक्त पुरुष को प्रागमभाववेदना कहते हैं। युक्तः साध्वादिरागमतो भावावश्यकम् । (अनुयो. अागमभावसामायिक - सामायिकवर्णनप्राभत मल. हेम. वृ. सू. २३, पृ. २८)। ज्ञाय्युपयुक्तो जीव आगमभावसामायिकं नाम । १ अावश्यकविषयक शास्त्र के जानने वाले और (मूला. वृ. ८-१७)। उसमें उपयुक्त जीव को प्रागमभावावश्यक कहते हैं। सामायिक का वर्णन करने वाले प्राभत का ज्ञाता प्रागमभावोपक्रम-१. भावोपक्रमो द्विधा प्रागहोकर उसमें उपयुक्त जीव को प्रागमभावसामा मतो नोग्रागमतश्च । आगमतो ज्ञाता उपयुक्तः । यिक कहते हैं। (प्राव. नि. हरि. व. ७६, पृ. ५५)। २. भावोपप्रागमभावाग्रायरणीय-तत्थ अग्गेणियपुव्वहरो क्रमो द्विधा पागमतो नोग्रागमतश्च । तत्रागमत उवजुत्तो पागमभावग्गेणियं । (धव. पु. ६, पृ. उपक्रमशब्दार्थस्य ज्ञाता तत्र चोपयुक्तः, उपयोगो २२५)। भावनिक्षेप इति वचनात् । (व्यव. भा. मलय. व. प्राग्रायणीय पूर्व का ज्ञाता होकर तद्विषयक उपयोग १, पृ. २)। ३. आगमत उपक्रमशब्दार्थस्य ज्ञाता से युक्त जीव को पागमभावाग्रायणीय कहते हैं। तत्र चोपयुक्तः । (जम्बूद्वी. शा. वृ. पृ. ६)। आगमभावान्तर-अंतरपाडजाणो उवजुत्तो भावागमो वा पागमभावंतरं। (धव. पु. ५, पृ. ३)।। २ उपक्रम शब्द के अर्थ के ज्ञाता और उसमें उपयुक्त जीव को पागमभावोपक्रम कहते हैं। अ.तरविषयक प्राभूत के ज्ञायक और उसमें उपयुक्त जीव को प्रागमभावान्तर कहते हैं। अथवा अन्तर प्रागमसिद्ध-पागमसिद्धो सव्वंगपारो गोयमो विषयक भावागम को आगमभावान्तर कहते हैं। व्व गुणरासी । (प्राव. नि. ६३५)। प्रागमभावाहन - अर्हद्व्यावर्णनपरप्राभृतप्रत्य जो गौतम के समान गुणसमूह से अलंकृत होकर समस्त अंगश्रत का पारगामी हो उसे पागमसिद्ध विजयो. टी. ४६)। कहते हैं। अरहन्त के स्वरूप का वर्णन करने वाले प्राभूत के प्रागमाभास-१. राग-द्वेष-मोहाक्रान्तपुरुषवचज्ञान से सहित जीव को अथवा उनके स्वरूप के नाज्जातमागमाभासम् । (परीक्षामुख ६-५१) । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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