Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 288
________________ प्रागमोपलब्धि] १७६, जैन-लक्षणावली [प्राचारवान् २. अनाप्तवचनप्रभवं ज्ञानमागमाभासम् । (प्र. न. (त. भा. सिद्ध. वृ. ८-१०, पृ. १४६) । त. ६-८३)। २ जिस उपायभूत माया व्यवहार के द्वारा दूसरे जीवों १ राग, द्वेष और मोह से व्याप्त पुरुष के वचनों का घात किया जावे उसे प्राचरण कहते हैं। माया से उत्पन्न हुए या रचे गये प्रागम को पागमाभास कषाय के प्रणिधि व उपधि प्रादि पर्याय शब्दों में से कहते हैं। यह भी एक है। प्रागमोपलब्धि-१. अत्तागमप्पमाणेण अक्खर पाचरितदोष-तच्च (कुटी-कटकादिक) दूरदेशाकिंचि अविसयत्थे वि । भवियाऽभविया कुरवो दानीतमाचरितम् । (भ. प्रा. मला. टी. २३०) । नारग दियलोय मोक्खो य। (बृहत्क. भा. १-५३)। दूर देश से लाई गई कुटी व चटाई आदि के ग्रहण २. प्राप्ताः सर्वज्ञाः, तत्प्रणीत आगम प्राप्तागमः, करने को प्राचरित (वसतिका-उद्गम) दोष xxx इयमत्र भावना-प्राप्तागमप्रामाण्यवशात् कहते हैं। तस्मिस्तस्मिन् वस्तुनि योऽक्षरलाभः, यथा-भव्य प्राचार-देखो प्राचारांग। १. से किं तमायारे? इति अभव्य इति देवकुरव इत्यादि, सा आगमोप- प्रायारे णं समणाणं णिग्गंथाणं पायार-गोयर-विणयलब्धिः । (बृहत्क. भा. मलय. व. १-५३)। वेणइय-सिक्खा-भासा-प्रभासा-चरण-करण-जाया-माप्राप्तप्रणीत प्रागम के द्वारा विवक्षित वस्तु के या वित्तीग्रो प्राघविजं । xxxसे तं पायारे। विषय में जो अक्षरों का लाभ होता है-जैसे भव्य, (णंदी. ४५, पृ. २०६)। २. पाचरणमाचार:, अभव्य और देवकूर आदि-उसे पागमोपलब्धि आचर्यत इति वा प्राचारः, शिष्टाचरितो ज्ञानाद्याकहते हैं। सेवन विधिरिति भावार्थः, तत्प्रतिपादको ग्रन्थोऽप्याप्रागाल-१.xxx बीयाग्रो एइ पागलो ॥ चार एवोच्यते । (नन्दी. हरि. व. प. ७५) । ३. (पंचसं. उपश. २०, प. १६२) । २. द्वितीयस्थिते- प्राचारो ज्ञानादिर्यत्र कथ्यते स प्राचारः। (त. भा. यत्पतति तदागालः। (पंचसं. स्वो. वृ. उपश. २०, हरि. व सिद्ध. वृ. १-२०)। ४. प्राचारे चर्याविप. १६२)। ३. आगालमागालो, विदियट्टिदिपदे- घानं शुद्धयष्टक-पञ्चसमिति-त्रिगुप्तिविकल्पं कथ्यते। साणं पढमट्रिदीए प्रोकड्डणावसेणागमणमिदि वुत्तं (त. वा. १, २०, १२, धव. पु. ६, पृ. १९७)। होदि । (जयध.प्र.प. ६५४)। ४. यत्पुन द्वितीय- ५. नाणंमि दंसणंमि अ चरणमि तवंमि तह य स्थितेः सकाशादुदीरणाप्रयोगेण समाकृष्योदये प्रक्षि- विरियम्मि। आयरणं आयारो इय एसो पंचहा पति स ागालः । (पंचसं. मलय. वृ. उपश. २०, भणिदो॥ (गु. गु. षट. स्वो. वृ. ३, पृ. १४) । पृ. १६३) । ५. यत्पूनद्वितीयस्थितेः सकाशादुदी- ६. पाचरणमाचार: पाचर्यत इति वा प्राचारः, पूर्वरणाप्रयोगेणव दलिकं समाकृष्योदये प्रक्षिपति सा पुरुषाचरितो ज्ञानाद्यासेवनविधिरित्यर्थः । तत्प्रतिउदीरणापि पूर्वसूरिभिविशेषप्रतिपत्त्यर्थमागाल इत्यु- पादकग्रन्थोऽप्याचार एवोच्यते । (नन्दी. मलय. व. च्यते । (शतक. दे. स्वो. वृ. ९८, पृ. १२८)। ४५, पृ. २०६)। ७. प्राचरन्ति समन्ततोऽनुतिष्ठ६. द्वितीयस्थितिद्रव्यस्यापकर्षणवशात् प्रथमस्थिता- न्ति मोक्षमार्गमाराधयन्ति अस्मिन्ननेनेति वा आवागमनमागालः । (ल. सा. टी. ८८)। चारः। (गो. जी. जी. प्र. ३५६) । २ द्वितीय स्थिति का द्रव्य जो उदयस्थिति में १ जिस श्रुतस्कन्ध में निर्ग्रन्थ साधनों के प्राचार प्राता है, इसका नाम आगाल है। ६ द्वितीय स्थिति (ज्ञानाचारादि), भिक्षाविधि, विनय, विनयफल. के द्रव्य का अपकर्षण करके उसके प्रथम स्थिति शिक्षा, भाषा, प्रभाषा, चरण (व्रतादि), करण में निक्षेपण करने को प्रागाल कहते हैं। (पिण्डशुद्धि आदि), संयमयात्रा, आहारयात्रा और प्राचरण-१. माया प्रणिधि: उपधिः निकृतिः वृत्ति (नियमविशेषों का परिपालन); इनका कथन प्राचरणं वञ्चना दम्भः कूटम् अतिसन्धानम् अनार्ज किया गया है उसका नाम प्राचार है। मित्यनर्थान्तरम् । (त. भा. ८-१०)। २. पाचर्य- प्राचारवान्-१. प्राचारं पंचविहं चरदि चराते अभिगम्यते भक्ष्यते वा परस्तयोपायभूतयेत्याचर वेदि जो णिरदिचारं। उवदिसदि य पायारं एसो णम् । तथा च वक-मार्जार-गृहकोलिकादयः प्रसिद्धाः। प्रायारवं णाम ॥ (भ.पा. ४१६)। २. यायार. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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